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समवायांग सूत्र PARMATHARITMANTARNAMANARTHATANAMANANAKAMANANARANAMAINTAINTAITRINAKA R MIRMIRMANMOHINIOR णीससंति वा । तेसिणं देवाणं अट्ठहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुष्पजइ । संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥८॥
कठिन शब्दार्थ - मय ट्ठाणा - मद स्थान, इस्सरिय मए - ऐश्वर्य मद, पवयण मायाओ - प्रवचन माता, चेइय रुक्खा - चैत्यवृक्ष, जंबू सुदंसणा - सुदर्शन नाम का जम्बू वृक्ष, कुडसामली - कूटशाल्मली, गरुलावासे - गरुड जाति के वेणुदेव का निवास स्थान, जगई - जगती-कोट के समान पाल, दंडं - दण्ड, कवाडं - कपाट (किंवाड), मथं - मथानी, पूरेइ - 'पूर्ण करता है, पडिसाहरइ - वापिस खींचता है।
भावार्थ - मद यानी अभिमान के आठ स्थान - भेद कहे गये हैं यथा - जाति का मद, कुल का मद, बल का मद, रूप का मद, तप का मद, श्रुत का मद, लाभ का मद, ऐश्वर्य का मद। आठ प्रवचन माता कही गई है। यथा -ईर्यासमिति - यतना पर्वक भाषासमिति - यतना पूर्वक बोलना, एषणा समिति - यतना पूर्वक आहार पानी आदि की गवेषणा करना, आदानभंडमात्र निक्षेपणा समिति-भण्डोपकरणों को यतना पूर्वक उठाना और रखना, उच्चार-प्रस्रवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिस्थापनिका समिति - बड़ी नीत, लघु नीत आदि को यतना पूर्वक परिठवना। मनगुप्ति - मन को अशुभ विचारों से रोकना, वचन गुप्ति - वचन को अशुभ वचनों से रोकना, काय गुप्ति - काया को अशुभ कार्यों से रोकना। वाणव्यन्तर देवों के चैत्य वक्ष आठ योजन ऊंचे कहे गये हैं। ये चैत्य वक्ष उनके नगरों में सुधर्मा आदि सभाओं के आगे मणि पीठिकाओं के ऊपर छत्र, चामर और ध्वजाओं से अलंकृत होते हैं। ये वृक्ष रत्नों के होते हैं। उत्तर कुरु में सुदर्शन नाम का जम्बू वृक्ष आठ योजन ऊँचा कहा गया है। देवकुरु में गरुड़ जाति के वेणुदेव का निवास स्थान कूट शाल्मली वृक्ष आठ योजन ऊंचा कहा गया है। जम्बूद्वीप की जगती (कोट के समान पाल) आठ योजन ऊंची कही गई है। अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष प्राप्त करने वाला कोई-कोई केवली-केवलज्ञानी कर्मों को सम (बराबर) करने के लिए अर्थात् वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मों की स्थिति को आयुकर्म की स्थिति के बराबर करने के लिए समुद्घात करता है। केवली समुद्घात आठ समय का कहा गया है। यथा - प्रथम समय में केवली अपने आत्मप्रदेशों की दण्ड की रचना करता है वह मोटाई में स्वशरीर परिमाण और लम्बाई में ऊपर और नीचे से लोकान्त तक विस्तृत होता है। दूसरे समय में उसी दण्ड को पूर्व और पश्चिम अथवा उत्तर और दक्षिण में
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