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सनत्कुमारावतंसक इन आठ विमानों में जो देव देव रूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की कही गई है। वे देव सात पखवाड़ों से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं । उन देवों को सात हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक- भव्य जीव सात भव करके सिद्ध बुद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ॥ ७ ॥
विवेचन - मोहनीय कर्म के दो भेद हैं। दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं- मिथ्यात्व मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय । चारित्र मोहनीय के दो भेद - कषाय मोहनीय और नोकषाय मोहनीय । कषाय मोहनीय के अन्तानुबन्धी क्रोध आदि सोलह भेद हैं। नोकषाय के नौ भेद हैं। जो क्रोधादि कषायों को उत्पन्न करने में निमित्त होते हैं । उनको नोकषाय कहते हैं । भय मोहनीय कर्म के उदय से भय पैदा होता है। भय के सात भेद हैं। इन में से " मरण" को सबसे बड़ा भय कहा है। जैसे
"सात भय संसार ना, तिणमें मरण भय मोटो रे । "
परन्तु ज्ञानी पुरुष तो फरमाते हैं कि प्राणी दुःखों से भयभीत हो रहे हैं। जैसा कि भगवती सूत्र में कहा है
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प्रश्न- किं भया पाणा ?
समवायांग सूत्र
COOPICOOR
उत्तर - दुःख भया पाणा ।
अर्थात् - प्राणियों को किससे भय लगता है ? प्राणियों को दुःख से भय लगता है। शास्त्रकार फरमाते हैं कि
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जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य ।
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतवो ॥
अर्थ - · जन्म दुःख है, जरा ( बुढ़ापा ) दुःख है, रोग दुःख है और मरण दुःख है । अहो ! बड़ा खेद है कि सारा संसार जन्म, मरण के दुःख से दुःखित हो रहा है। जैन सिद्धान्त कह रहा है कि जिसका जन्म होता है उसका मरण अवश्य होता है। इसलिये दुःखों का
मूल जन्म है। इसलिये जन्म की ही जड़ उखाड़ देनी चाहिये। जिसका जन्म नहीं होता उसको बुढ़ापा, रोग नहीं होता और यहाँ तक कि उसका मरण भी नहीं होता है। जैसा कि कहा
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भिनननननननननननभ
मृत्योर्बिभेषि किं मूढ ! भीतं मुञ्चति नो यमः । अजातं नैव गृह्णाति कुरु यत्नमजन्मनि ॥
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