________________
चौबीस तीर्थंकरों के प्रथम भिक्षादाताओं के नाम
-
४१७
उसका पारणा एक वर्ष से श्रेयांस कुमार के हाथ से इक्षुरस के दान से हुआ । इस पर से यह स्पष्ट होता है कि - भगवान् ऋषभदेव का पारणा चैत्र वदी पक्ष में (ऋतु सवंत्सर की दृष्टि से) ही हो गया था। इसलिये वैसाख सुदी ३ (अक्षय तृतीया-आखातीज) को भगवान् का पारणा हुआ, ऐसा कहना आगम सम्मत नहीं है। क्योंकि वैशाख सुदी ३ का उल्लेख किसी आगम में नहीं है। दूसरी बात यह है कि वैसाख सुदी ३ तक तेरह महीने से भी कुछ अधिक दिन हो जाते हैं। व्यवहार सूत्र उद्देशक १ के भाष्य में बतलाया गया है -
संवच्छरं तु पढमं, मज्झिमगाणमट्ठमासियं होइ ।
छम्मासं पच्छिमस्स उ, माणं भाणियं तवुक्कोसं ॥ अर्थ - अवसर्पिणी काल में पहले तीर्थङ्कर के समय में एक वर्ष बीच के बाईस तीर्थङ्करों के समय में आठ मास और अन्तिम तीर्थङ्कर के समय में छह मास का उत्कृष्ट तप होता है। इससे अधिक नहीं होता है। फिर भगवान् ऋषभदेव के ४०० दिन का तप कहना आगमानुकूल नहीं है। .
भगवान् ऋषभदेव के एक वर्ष का तप था इसलिए उसको वर्षीतप कहना उचित है। आजकल जो श्रावक श्राविका तप करते हैं वह एक वर्ष का एकान्तर तप है। इसलिये उसे वर्षीतप कहना उचित नहीं है। एकान्तर तप तो कई श्रावक श्राविका बीस तीस कई वर्षों तक भी निरन्तर करते हैं परन्तु इस सब एकान्तर तप को मिलाकर भी भगवान् ऋषभदेव के वर्षीतप के बराबर नहीं कहा जा सकता है। . . पञ्चाङ्ग को देखने से पता चलता है कि - वैसाख सुदी ३ का भी कभी कभी क्षय हो जाता है। आगे भी ऐसा हुआ है और अभी भी ऐसा होता है। इसलिए वैसाख सुदी ३ को अक्षय तृतीया कहना भी उचित नहीं है।
तीर्थकर भगवान् के दीक्षा लेकर पहले पारणे में सोना मोहर की वर्षा होती है। कितने प्रमाण में होती है इसके लिये मूलपाठ में शब्द दिया है - "सरीरमेत्तीओ वसुहाराओ वुढाओ" 'सरीर मेत्तीओ' का टीकाकार ने अर्थ किया है - "पुरुषमात्रा" - इसका यह अर्थ है कि - शरीर प्रमाण। पूर्वाचार्यों की धारणा के अनुसार इसका आशय यह है कि - जिस गृहस्थ के यहाँ पारणा होता है उसके आंगन में सोना मोहरों की बरसात होती है। उन सब मोहरों को इकट्ठा कर ढेर किया जाय तो वह इतना ऊंचा होता है जितना तीर्थङ्कर भगवान् का शरीर होता है। जिस तीर्थङ्कर का शरीर जितम ऊंचा होता है, सोना मोहरों का ढेर उतना ही ऊंचा होता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org