SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अवधिज्ञान का वर्णन ३९१ कार्मण शरीर - कर्मों से बना हुआ शरीर कार्मण कहलाता है। अथवा जीव के प्रदेशों के साथ लगे हुए आठ प्रकार के कर्म पुद्गलों को कार्मण शरीर कहते हैं। यह शरीर ही सब शरीरों का बीज है। ___ प्रश्न - एक जीव में एक साथ कम से कम कितने और ज्यादा से कितने शरीर पाये जा सकते हैं? उत्तर - तैजस और कार्मण शरीर सब संसारी जीवों के साथ अनादि काल से लगे हुए हैं। एक भव पूरा कर जीव दूसरे भव में जाता है तब भी विग्रह गति में भी ये दोनों शरीर साथ रहते हैं। किन्हीं आचार्यों की मान्यता है कि विग्रह गति में सिर्फ कार्मण शरीर ही रहता है। परन्तु यह मान्यता आगम से मेल नहीं खाती है। अत: कम से कम दो शरीर एक जीव में , एक साथ पाए जाते हैं। तीनं शरीर हो तो तैजस, कार्मण और औदारिक (मनुष्य और तिर्यंञ्च की अपेक्षा) अथवा तैजस, कार्मण और वैक्रिय (देव और नैरयिक की अपेक्षा) यदि चार शरीर हों तो तैजस, क्रार्मण, औदारिक और वैक्रिय अथवा तैजस, कार्मण, औदारिक और आहारक । इस प्रकार प्रयोग की अपेक्षा ज्यादा से ज्यादा एक जीव में एक साथ चार शरीर पाए जा सकते हैं। पांच शरीर एक साथ प्रयोग की अपेक्षा किसी के भी नहीं होते । क्योंकि वैक्रिय लब्धि और आहारक लब्धि का प्रयोग एक साथ सम्भव नहीं है। हाँ, सत्ता की अपेक्षा पांचों शरीरों की सत्ता एक जीव में एक साथ पाई जा सकती है। पांचों शरीर के इस क्रम का कारण यह है कि आगे आगे के शरीर पिछले की अपेक्षा प्रदेश बहुल (अधिक प्रदेश वाले) एवं परिमाण में सूक्ष्मतर हैं। तैजस और कार्मण शरीर सभी संसारी जीवों के होते हैं। इन दोनों शरीरों के साथ ही जीव मरण देश को छोड़ कर उत्पत्ति स्थान को जाता हैं। अवधिज्ञान का वर्णन कइविहे णं भंते! ओही पण्णत्ता ? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता तंजहा - भवपच्चइए य खओवसमिए य। एवं सव्वं ओहिपदं भाणियव्वं । ..कठिन शब्दार्थ - ओही - अवधिज्ञान, भवपच्चइए - भवप्रत्ययिक, खओवसमिए - क्षायोपशमिक। भावार्थ - हे भगवन्! अवधिज्ञान के कितने भेद कहे गये हैं? हे गौतम! दो भेद कहे गये हैं जैसे भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक। इस प्रकार श्री पन्नवणा सूत्र का तेतीसवां अवधिपद सारा कह देना चाहिए। । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy