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________________ समवायांग सूत्र दूसरी तरह से इस प्रकार भी व्याख्या की गयी है, जो सम्पूर्ण श्रुतज्ञान के अर्थों की गहराई में उतरने में समर्थ होते हैं। अहिंसा, संयम और तप इन तीन शब्दों से समस्त चरणानुयोग तथा समस्त धर्म कथानुयोग का जिनको क्षयोपशम हो जाता है, तथा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन तीन शब्दों से जिनको समस्त द्रव्यानुयोग और गणितानुयोग का क्षयोपशम हो जाता है। ऐसे महान् क्षयोपशमशाली महापुरुषों को 'गणधर' कहते हैं । पूर्व चौदह हैं। उनके पदों का परिमाण मूल में नहीं बतलाया गया है। किन्तु टीका ग्रन्थों में बतलाया गया है। जिनका वर्णन ऊपर भावार्थ में कर दिया गया है। इन सब को मिलाकर कुल ८३ करोड़ २६ लाख ८० हजार ५ पद थे ऐसा टीका ग्रन्थों में परिमाणं पाया जाता है। इन पूर्वो को लिखने के लिये स्याही (मषि) का परिमाण पूर्वाचार्यों की धारणा के अनुसार इस प्रकार है- अम्बाडी सहित हाथी खड़ा हो उसको सूखी स्याही के ढीगले से ढक दिया जाय उतनी स्याही को एक हस्ती परिमाण कहा है। पहले पूर्व के लिये एक हाथी, दूसरे के लिये दो हाथी, तीसरे के लिये चार हाथी, इस प्रकार आगे दुगुना दुगुना करते जाय तो चौदहवें पूर्व के लिये ८१९२ हाथी परिमाण स्याही की आवश्यकता होती है। सभी चौदह पूर्वों के लिये कुल मिलाकर १६३८३ हाथी परिमाण स्याही की आवश्यकता होती है। उस सूखी स्वाही को पानी में घोलकर लिखा जाय तो उपरोक्त हाथी परिमाण स्याही की आवश्यकता होती है। यह केवल उपमा मात्र है किन्तु एक पूर्व भी कभी भी नहीं लिखा गया, न ही लिखा जा सकता है और न लिखा जायेगा । ३४४ रचना की अपेक्षा पूर्वगत का नम्बर प्रथम है। किन्तु अध्ययन अध्यापन (पाठ्यक्रम) की अपेक्षा आचाराङ्ग सूत्र का प्रथम नम्बर है। तथा गणना क्रम से भी आचाराङ्ग का प्रथम नम्बर है । यही क्रम सूयगडाङ्ग आदि अङ्ग सूत्रों के लिये भी समझना चाहिए । उपायपुव्वस्स णं दस वत्थू पण्णत्ता, चत्तारि चूलियावत्थू पण्णत्ता । अग्गेणीयस्स णं पुव्वस्स चोहसवत्थू, बारस चुलियावत्थू पण्णत्ता । वीरियप्पवायस्स णं पुव्वस्स अट्ठ वत्थू, अट्ठ चूलियावत्थू पण्णत्ता । अत्थिणत्थिप्पवायस्स णं पुव्वस्स अट्ठारसवत्थू, दस चूलियावत्थू पण्णत्ता । णाणप्पवायस्स णं पुव्वस्स बारस वत्थू पण्णत्ता। सच्चप्पवायस्स णं पुव्वस्स दो वत्थू पण्णत्ता | आयप्पवायस्स णं पुव्वस्स सोलस वत्थू पण्णत्ता । कम्मप्पवायस्स णं पुव्वस्स तीसं वत्थू पण्णत्ता । पच्चक्खाणस्स णं पुव्वस्स बीसं वत्थू पण्णत्ता । विज्जाणुप्पवायस्स णं पुव्वस्स पण्णस्स वत्थू पण्णत्ता । अवंज्झस्स णं पुव्वस्स बारस वत्थू पण्णत्ता । पाणाउस्स णं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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