SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०८ समवायांग सूत्र MANANAwewwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwseem जिनका समाधान प्राप्त कर नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, भक्त से भगवान् बन जाता है। ज्ञानादि सम्पूर्ण ऐश्वर्य से युक्त हो उसे भगवान् कहते हैं। इस सूत्र के अध्ययन करने से आत्मा ज्ञाता, विज्ञाता बनकर भक्त से भगवान् बन जाता है। यह सूत्र भक्त से भगवान् बनाता है इसलिये इसे भगवती सूत्र भी कहते हैं। आचाराङ्ग से लेकर दृष्टिवाद तक बारह अङ्ग सूत्र हैं उनमें दृष्टिवाद सबसे बड़ा अङ्ग सूत्र है। परन्तु वह तो प्रत्येक तीर्थङ्कर के दो पाट तक ही चलता है। फिर विच्छिन्न हो जाता है। इस समय दृष्टिवाद का विच्छेद हो जाने से विपाक सूत्र तक ११ अङ्ग ही उपलब्ध होते हैं। इन ११ अङ्गों में यह व्याख्या प्रज्ञप्ति अङ्ग सबसे बड़ा है। इसलिये भी इसे भगवती सूत्र कहते हैं। व्याख्या प्रज्ञप्ति शब्द स्त्री लिङ्ग है। इसलिये इसका पर्यायवाची शब्द 'भगवती' यह स्त्री लिङ्ग शब्द रखा गया है। अन्यथा जिस प्रकार आचाराङ्ग सूत्र को 'भगवान्' कहा है। इसी प्रकार इस व्याख्या प्रज्ञापक सूत्र को भी "भगवान्" कह सकते हैं। इसमें ३६००० हजार प्रश्नोत्तर होने से बहुत विस्तृत ज्ञान का भण्डार है। __ नोट - आचाराङ्ग से लेकर समवायाङ्ग सूत्र तक पदों का परिमाण दुगुना दुगुना बताया गया है। किन्तु इस व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र के पदों में दुगुना नहीं बतलाया गया है। किन्तु यहाँ ८४००० पदों का उल्लेख स्पष्ट है। जो कि वर्तमान में उपलब्ध है। से किं तं णायाधम्मकहाओ? णायाधम्मकहासु णं णायाणं णगराइं, उज्जाणाई, चेइयाई, वणखंडा, रायाणो, अम्मापियरो, समोसरणाइं, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइय परलोइय इड्डी विसेसा, भोगपरिच्चाया, पव्वजाओ, सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई, परियागा, संलेहणाओ, भत्तपच्चक्खाणाई, पाओवगमणाई, देवलोगगमणाई, सकुलपच्चायायाई, पुणबोहिलाभा, अंत किरियाओ य.आधविनंति जाव णायाधम्मकहासु पव्वइयाणं विणयकरण जिणसामिसासणवरे संजमपइण्ण पालण धिइमइ ववसायदुब्बलाणं तव णियम तवोवहाण रणदुद्धर भरभग्गय णिस्सहय णिसिट्ठाणं घोरपरिसह पराजियाणं सहपारद्धरुद्ध सिद्धालयमग्ग णिग्गयाणं विसयसुह तुच्छआसावस दोसमुच्छियाणं विराहिय चरित्तणाणदसणजइगुण विविहप्पयार णिस्सारसण्णयाणं संसार अपार दुक्ख दुग्गइ भव-विविहपरंपरापवंचा, धीराण य जियपरिसह कसाय सेण्ण धिइ धणिय संजम उच्छाह णिच्छियाणं आराहिय णाणदंसण चरित्त जोग णिस्सल्ल सुह सिद्धालय मग्गमभिमुहाणं सुर भवण विमाण सुक्खाई अणीवमाई भुत्तूण चिरं च भोगभोगाणि ताणि दिव्वाणि महरिहाणि तओ य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy