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________________ ३०४ समवायांग सूत्र महीधराणं कुलगर तित्थयर गणहराणं सम्मत्तभरहाहिवाणं चक्कीणं चेव चक्कहरहलधराणं च वासाणं च णिगमा य समाए, एए अण्णे य एवमाइ एत्थ वित्थरेणं अत्था समाहिजंति। समवायस्स णं परित्ता वायणा जाव से णं अंगट्ठयाए चउत्थे अंगे एगे अज्झयणे, एगे सुयक्खंधे, एगे उद्देसण काले, एगे चउयाले पयसहस्से पयग्गेणं पण्णत्ता । संखेजाणि अक्खराणि जाव चरणकरण परूवणया आघविजंति । से तं समवाए ॥४॥ कठिन शब्दार्थ - पल्लवग्गो - सार यानी संक्षिप्त विषय, समणुगाइजइ - वर्णन किया गया है, जगजीवहियस्स - जगत के प्राणियों के लिए हितकारी, समोयारे - विविध आचार का, अवरे वि - और भी, परिरयप्पमाणं - परिधि का परिमाण, सम्मत्त भरहाहिवाणं चक्कीणं - समस्त भरताधिप चक्री-सम्पूर्ण भरत क्षेत्र के स्वामी चक्रवर्ती, चक्कहर - चक्रधरवासुदेव, हलधराणं - हलधर-बलदेव, अण्णे एवमाइ एत्थ - इसी प्रकार के अन्य प्रकार के पदार्थों का, समाहिजंति - वर्णन किया गया है, चरणकरणपरूवणया - चरण करण . की प्ररूपणा से। भावार्थ - शिष्य प्रश्न करता है कि हे भगवन् ! समवायाङ्ग सूत्र में क्या भाव कहे गये हैं ? गुरु महाराज फरमाते हैं कि समवायाङ्ग सूत्र में स्वसमय, परसमय, स्वसमयपरसमय यावत् लोकालोक का वर्णन किया गया है। समवायाङ्ग सूत्र में एक दो तीन यावत् एक एक की वृद्धि करते हुए सौ तक और फिर हजार लाख यावत् कोटि पर्यन्त पदार्थों का कथन किया गया है। गणिपिटक यानी आचार्य के रत्नकरण्ड के समान द्वादशाङ्ग का सार यानी संक्षिप्त विषय वर्णन किया गया है। एक से लेकर सौ संख्या तक आत्मा आदि तत्त्वों का वर्णन किया गया है। आचाराङ्ग. आदि बारह अङ्गसूत्रों का संक्षिप्त विषय बतलाया गया है। जगत् के प्राणियों के लिये हितकारी, अतिशय ज्ञानी भगवान् के विविध आचार का संक्षेप से कथन किया गया है। इस समवायाङ्ग सूत्र में जीव और अजीव के अनेक प्रकार से भेद करके विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है और भी बहुत प्रकार के जीवाजीव के धर्मों का वर्णन किया गया है। जैसे कि - नैरयिक जीव, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों का आहार, उच्छ्वास, लेश्या, आवास संख्या, आयतपरिमाण - लम्बाई चौड़ाई, उपपात-उत्पत्ति, च्यवन - मरण, अवगाहना, अवधि-मर्यादा वेदना, विधान-भेद, उपयोग, योग, इन्द्रिय, कषाय, अनेक प्रकार की जीवयोनि, मेरु पर्वत आदि पर्वतों का विष्कम्भ विस्तार, उत्सेध-ऊंचाई, परिधि का परिमाण और भेद, कुलकर, तीर्थङ्कर, गणधर सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के स्वामी चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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