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________________ बारह अंग सूत्र ३०३ के द्वारा एवं सम्पूर्ण नयों के अभिप्राय से बतलाये गये हैं। इस प्रकार स्थानाङ्ग सूत्र को पढ़ने से आत्मा ज्ञाता और विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरणसत्तरि करणसत्तरि आदि की प्ररूपणा से स्थानाङ्ग सूत्र के भाव कहे गये हैं, विशेष रूप से कहे गये हैं एवं दिखलाये गये हैं। यह स्थानाङ्ग सूत्र का संक्षिप्त विषय बतलाया गया है ॥ ३ ॥ ___ 'विवेचन - दूसरे, तीसरे और चौथे अध्ययन में चार चार उद्देशे हैं, पांचवें अध्ययन में तीन उद्देशे हैं, शेष ६ अध्ययनों में ६ उद्देशे हैं, ये कुल मिला कर २१ उद्देशे होते हैं। तिष्ठन्त्यस्मिन् प्रतिपाद्यतया जीवादय इति स्थानम् । अर्थ - प्रतिपाद्य होने के कारण जीवादि पदार्थ जिसमें स्थापित किये जाते हैं, उसे स्थान (ठाण) कहते हैं। जीवास्तिकाय आदि अनन्त द्रव्य हैं। स्वभाव को गुण कहते हैं। जैसे - जीव का स्वभाव (गुण) उपयोग है। क्षेत्र का अर्थ असंख्यात प्रदेशावगाढ है। काल अनादि अनन्त है। काल के द्वारा की गयी अवस्था को पर्याय (पर्यव) कहते हैं। जैसे - बचपन युवावस्था आदि। अथवा नरक नारक आदि अवस्था को पर्याय कहते हैं। यहाँ नदी शब्द से मही, कोसी आदि सामान्य नदियाँ ली गयी है और सलिल शब्द से गंगा आदि महानदियाँ ली गयी है। समुद्र अर्थात् लवण समुद्र यावत् स्वयंभूरमण समुद्र। सोना, चांदी, लोह आदि को उत्पत्ति के स्थान (भूमि) को 'आकर' कहते हैं। ठाणाङ्ग सूत्र में एक श्रुतस्कन्ध है दस अध्ययन हैं। २१ उद्देशक और २१ ही समुद्देशक हैं। ठाणाङ्ग सूत्र में विषयों की व्यवस्था उनके भेदों के अनुसार की गयी है। अर्थात् समान संख्यक भेदों वाले विषयों को एक ही साथ रखा है। एक भेद वाले पदार्थ पहले अध्ययन में हैं। दो भेदों वाले दूसरे में इसी प्रकार यावत् दस भेदों तक के दसवें अध्ययन में दिये गये हैं। यहाँ पदार्थों को ठाण या स्थान शब्दों से कहा गया है। से किं तं समवाए? समवाएणं ससमया सूइजति, परसमया सूइजति, ससमयपरसमया सूइज्जति, जाव लोगालोगा सूइज्जति । समवाएणं एगाइयाणं एगट्ठाणं एगुत्तरिय परिवुड्डीए दुवालसंगस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समणुगाइज्जइ, ठाणग सयस्स, बारसविह वित्थरस्स सुयणाणस्स, जगजीवहियस्स भगवओ समासेणं समायारे आहिज्जइ। तत्थ य णाणाविहप्पगारा जीवाजीवा य वण्णिया वित्थरेण, अवरे वि य बहुविहा विसेसा णरग तिरिय मणुय सुरगणाणं आहारुस्सासलेस्सा आवास संखासयपप्पमाण उववाय चवण ओगाहणोवहि वेयण विहाण उवओग जोग इंदिय कसाय विविहा य जीवजोणी विक्खंभुस्सेह - परिरयप्पणाणं विहिविसेसा य मंदराईणं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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