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________________ बारह अंग सूत्र ३०१ ये चारों वादी मिथ्यादृष्टि हैं। क्रियावादी - जीवादि पदार्थों के अस्तित्व को ही मानते हैं। इस प्रकार एकान्त अस्तित्व को मानने से इनके मत में पर रूप की अपेक्षा से नास्तित्व नहीं माना जाता। पर रूप की अपेक्षा से वस्तु में नास्तित्व न मानने से वस्तु में स्वरूप की तरह पर रूप का भी अस्तित्व रहेगा। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु में सभी वस्तुओं का अस्तित्व रहने से एक ही वस्तु सर्व रूप हो जायेगी। जो कि प्रत्यक्ष बाधित है। इस प्रकार क्रियावादियों का मत मिथ्यात्व पूर्ण है। अक्रियावादी - जीवादि पदार्थ नहीं हैं। इस प्रकार असद्भूत अर्थ का प्रतिपादन करते हैं। इसीलिये वे भी मिथ्या दृष्टि हैं। एकान्त रूप से जीव के अस्तित्व का प्रतिषेध करने से उनके मत में निषेध कर्ता का भी अभाव हो जाता है। निषेध कर्ता के अभाव से सभी का अस्तित्व स्वत: सिद्ध हो जाता है। अज्ञानवादी - अज्ञान को श्रेय मानते हैं। इसलिये वे भी मिथ्या दृष्टि हैं और उनका कथन स्ववचन बाधित है। क्योंकि "अज्ञान श्रेय है" यह बात भी वे बिना ज्ञान के कैसे जानते हैं और बिना ज्ञान के वे अपने मत का समर्थन भी कैसे कर सकते हैं ? इस प्रकार अज्ञान की श्रेयता बताते हुए उन्हें ज्ञान का आश्रय लेना ही पड़ता है। विनयवादी - केवल विनय से ही स्वर्ग मोक्ष पाने की इच्छा रखने वाले विनयवादी मिथ्यादृष्टि हैं। क्योंकि ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष की प्राप्ति होती है। केवल ज्ञान या केवल क्रिया से नहीं। ज्ञान को छोड़ कर एकान्त रूप से केवल क्रिया के एक अङ्ग का आश्रय लेने से वे सत्य मार्ग से परे हैं। अतएव मिथ्या दृष्टि हैं। से किं तं ठाणे? ठाणेणं ससमया ठाविज्जति, परसमया ठाविज्जति, ससमयपरसमया ठाविनंति, जीवा ठाविजंति, अजीवा ठाविज्जति, जीवाजीवा ठाविजंति, लोए ठाविजइ, अलोए ठाविज्जइ, लोगालोगा ठाविजंति । ठाणेणं दव्व गुण खेत्त काल पज्जव पयत्थाणं - "सेला सलिला य समुद्दा, सुरभवण विमाण आगर णईओ । - णिहिओ पुरिसजाया, सरा य गोत्ता य जोइसंचाला ॥ १ ॥ एक्कविह वत्तव्वयं दुविह वत्तव्वयं जाव दसविह वत्तव्वयं जीवाण, पोग्गलाण य लोगट्ठाइं च णं परूवणया आघविजंति । ठाणस्स णं परित्ता वायणा, संखेजा अणुओगदारा, संखेजाओ पाडवत्तीओ, संखेजा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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