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________________ प्रकीर्णकसमवाय २८७ अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं विमाणा एक्कारस जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता। पासस्स णं अरहओ इक्कारससयाई वेउव्वियाणं होत्था ॥ ११००॥ महापउम महापुंडरीय दहाणं दो दो जोयण सहस्साइं आयामेणं पण्णत्ता॥ २०००॥ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए वइरकंडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ लोहियक्ख कंडस्स हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं तिण्णि जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ॥३०००॥ तिगिच्छि केसरी दहाणं चत्तारि चत्तारि जोयण सहस्साइं आयामेणं पण्णत्ता।। ४०००। धरणितले मंदरस्स णं पव्वयस्स बहुमज्झदेसभाएं रुयग णाभीओ चउहिसिं पंच पंच जोयण सहस्साइं अबाहाए अंतरे मंदरपव्वए पण्णत्ते ॥५०००॥ कठिन शब्दार्थ - वइरकंडस्स - वज्रकांड के, लोहियक्ख कंडस्स - लोहिताक्ष कांड के, तिगिच्छि केसरीइहा - तिगिच्छि और केसरी द्रह, रुयग णाभीओ - रुचक नाभि प्रदेश। भावार्थ - अनुत्तरौपपातिक देवों के विमान ११०० योजन ऊंचे कहे गये हैं। भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी के ११०० वैक्रिय लब्धिधारी साधु थे ॥ ११०० ॥ महापद्म और महापुण्डरीक द्रह दो दो हजार योजन लम्बे कहे गये हैं ॥ २००० ॥ इस रत्नप्रभा पृथ्वी के वज्रं काण्ड के ऊपर के चरमान्त से लोहिताक्ष काण्ड के नीचे के चरमान्त तक तीन हजार योजन का अन्तर कहा गया है ॥ ३००० ॥ तिगिच्छि और केसरी द्रह चार चार हजार योजन लम्बे कहे गये हैं ॥ ४००० ॥ इस पृथ्वी पर मेरु पर्वत के ठीक बीच में रुचक नाभिप्रदेश हैं। वहाँ से चारों दिशाओं में मेरुपर्वत तक पांच पांच हजार योजन का अन्तर कहा गया है अर्थात् मेरु पर्वत मूल में दस हजार योजन चौड़ा है। उसके ठीक बीच में रुचक प्रदेश हैं। इसलिए वहाँ से चारों दिशाओं में पांच पांच हजार योजन का अन्तर होता है ॥ ५००० ॥ विवेचन - मेरु पर्वत समतल भूमि भाग पर दस हजार योजन का चौड़ा है। उसके ठीक मध्य भाग में गोस्तनाकार चार रुचक प्रदेश ऊपर की तरफ और चार नीचे की तरफ हैं वहीं से चार दिशा और चार विदिशा तथा ऊपर और नीचे इस प्रकार दश दिशाओं का प्रादुर्भाव होता है। उन आठ रुचक प्रदेशों से चारों तरफ पांच-पांच हजार योजन तक मेरु पर्वत की सीमा है। इसी बात का उल्लेख इस सूत्र में किया गया है। सहस्सारे णं कप्पे छ विमाणावास सहस्सा पण्णत्ता ॥ ६०००॥ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए रयणस्स कंडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ पुलगस्स कंडस्स Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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