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समवाय ७१.
२३३ smameemamasomemammmmmmmmmmmmmmmemesteameramannmanNIRTAINMARATHIWANIMARATI है। इतने अबाधा काल को छोड़ कर शेष रही हुई स्थिति में कर्म परमाणुओं की फल देने के योग्य रचना को 'निषेक' कहते हैं।
- उसका क्रम यह है कि अबाधा काल पूरा होने के बाद प्रथम समय में बहुत कर्म दलिक निषिक्त होते हैं अर्थात् कर्मों का फल देने के लिये अधिक कर्म दलिक उदय में आते हैं। दूसरे समय में उससे कम तीसरे समय में उससे कम निषिक्त होते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर कम होते होते स्थिति के अन्तिम समय में सब से कम कर्म दलिक निषिक्त होते हैं। ये निषिक्त हुए कर्म दलिक अपना अपना समय आने पर फल दे कर निर्जरित हो जाते हैं अर्थात् झड़ जाते हैं। यह व्यवस्था कर्मशास्त्र के अनुसार है किन्तु कुछ आचार्यों की मान्यता यह है कि जिस कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बन्धती है उसका अबाधा-काल उससे अतिरिक्त होता है। अतः बंधी हुई स्थिति के समयों में कर्मदलिकों का निषेक होता है अर्थात् बन्धी हुई कर्म स्थिति के समयों में कर्म दलिकों का निषेक होता है अर्थात् बन्धी हुई कर्म स्थिति पूरी की पूरी भोगनी पड़ती है। अतः उसकी अबाधा काल की छूट नहीं मिलती है। यह मान्यता आगम अनुकूल नहीं लगती है।
इकहत्तरवा समवाय ___चउत्थस्स णं चंदसंवच्छरस्स हेमंताणं एक्कसत्तरीए राईदिएहिं वीइक्कंतेहिं सव्व बाहिराओ मंडलाओ सूरिए आउट्टि करेइ । वीरियप्पवायस्स णं पुवस्स एक्कसत्तर पाहुडा पंण्णत्ता। अजिए णं अरहा एक्कसत्तरि पुव्वसयसहस्साई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए। एवं सगरो वि राया चाउरंत चक्कवडी एक्कसत्तरि पुव्वसयसहस्साई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए॥७१ ॥
कठिन शब्दार्थ - आउट्टि - आवृत्ति, वीरियप्पवायस्स - वीर्य प्रवाद नामक तीसरे पूर्व के, एक्कसत्तरि - इकहत्तर, पाहुडा - प्राभृत (अध्ययन विशेष)।
भावार्थ - चौथे चन्द्र संवत्सर की हेमन्त ऋतु के ७१ दिन बीत जाने पर सूर्य सब से बाहर के मण्डल से आवृत्ति करता है अर्थात् उत्तरायण में भ्रमण करता है। यानी माघ महीने की बद तेरस को सूर्य दक्षिणायन से लौट कर उत्तरायण में परिभ्रमण करता है। वीर्यप्रवाद नामक तीसरे पूर्व के इकहत्तर प्राभृत-अध्ययन विशेष कहे गये हैं। दूसरे तीर्थक्कर श्री अजितनाथ स्वामी ७१ लाख पूर्व तक गृहस्थवास में रह कर फिर मुण्डित होकर यावत् प्रव्रजित हुए थे।
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