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________________ २१८ समवायांग सूत्र लेवें, यह जाति हीनता हो जाती है। अतः महापुरुषों के जातिसम्पन्न और कुलसम्पन्न ऐसे दो . विशेषण तो लगते ही हैं। छासठवां समवाय दाहिणड्ड माणुस्सखेत्ताणं छावढि चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा। छावटुिं सूरिया तविंसु वा तवंति वा तविस्संति वा। उत्तरड्ड माणुस्सखेत्ताणं छावढेि चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा। छावटुिं सूरिया तविंसु.वा तवंति वा तविस्संति वा। सिज्जस्स णं अरहओ छावटुिं गणा छावढेि गणहरा होत्था। आभिणिबोहिय णाणस्स णं उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता ॥६६॥ कठिन शब्दार्थ - दाहिणड्डमाणुस्सखेत्ताणं - मनुष्यक्षेत्र के दक्षिणार्द्ध में, छावढेि - छासठ, पभासिंसु - प्रकाशित हुए थे, पभासंति - प्रकाशित होते हैं, पभासिस्संति. - प्रकाशित होवेंगे, तविंसु - तपे थे, तवंति - तपते हैं, तविस्संति - तपेंगे। भावार्थ - मनुष्य क्षेत्र के दक्षिणार्द्ध में छासठ चन्द्र गत काल में प्रकाशित हुए थे, वर्तमान काल में प्रकाशित होते हैं और भविष्यत् काल में प्रकाशित होवेंगे। इसी तरह छासठ सूर्य तपे थे, तपते हैं और तपेंगे। मनुष्य क्षेत्र के उत्तरार्द्ध में छासठ चन्द्र प्रकाशित हुए थे, प्रकाशित होते हैं और प्रकाशित होंगे। इसी तरह छासठ सूर्य तपे थे, तपते हैं और तपेंगे। अर्थात् जम्बूद्वीप में २ चन्द्र और २ सूर्य हैं। लवण समुद्र में ४ चन्द्र, ४ सूर्य हैं, धातकीखण्ड द्वीप में १२ चन्द्र, १२ सूर्य हैं, कालोदधि में ४२ चन्द्र, ४२ सूर्य हैं और पुष्करार्द्ध द्वीप में ७२ चन्द्र, ७२ सूर्य हैं। सब मिलाकर १३२ चन्द्र और १३२ सूर्य हैं। उनमें से ६६ चन्द्र और ६६ सूर्य दक्षिणार्द्ध मनुष्य क्षेत्र में हैं और ६६ चन्द्र और ६६ सूर्य उत्तरार्द्ध मनुष्य क्षेत्र में हैं। दसवें तीर्थंकर श्री श्रेयांशनाथ स्वामी के छासठ गण और छासठ गणधर थे। आभिनिबोधिक ज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति छासठ सागरोपम से कुछ अधिक कही गई है।। ६६ ।। विवेचन - आवश्यक सूत्र में श्री श्रेयांसनाथ स्वामी के ७६ गण और ७६ गणधर बतलाये हैं। यह मतान्तर मालूम होता है। ___यहाँ आभिनिबोधिक ज्ञान (मतिज्ञान) की उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागरोपम की बतलाई है। किन्तु होती है छासठ सागर से कुछ अधिक। जैसा कि कहा है - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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