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________________ समवाय ५५ चौड़ी है। उस जगती को शामिल गिनने से ही जम्बूद्वीप एक लाख योजन का पूरा होता है। इसी प्रकार लवण समुद्र की जगती को भी शामिल गिनने से लवण समुद्र दो लाख योजन का पूरा होता है। द्वीप और समुद्रों की जगती के परिमाणों को अलग गिना जाय तो मनुष्य क्षेत्र ४५ लाख योजन से अधिक हो जायेगा और उसकी परिधि भी अधिक हो जायेगी। जो कि आगमानुसार नहीं है। टीकाकार तो सब द्वीप - समुद्रों की जगती मानते हैं किन्तु शास्त्रकार तो सिर्फ जम्बूद्वीप की जगती मानते हैं। दूसरे द्वीप समुद्रों की जगती नहीं मानते किन्तु वेदिका मानते हैं आगमों में ऐसा ही वर्णन है । २०७ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अन्तिम चौमासा मध्यम अपापा नगरी में हस्तीपाल राजा की करण-सभा (लेख शाला) में किया था । कार्तिक वदी अमावास्या को स्वाति नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ योग जुड़ने पर रात्रि के पीछले भाग में पर्यंक आसन से बैठे हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, पुण्य के फल बतलाने वाले ५५ अध्ययन और पाप के फल बतलाने वाले ५५ अध्ययन फरमाकर मोक्ष पधारे । मूल पाठ में 'सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वुडे' शब्द दिये हैं जिनका अर्थ इस प्रकार हैं.. - १. सिद्ध - " सिद्ध्यति कृतकृत्यो भवति, सेधयति स्म वा अगच्छत् अपुनरावृत्त्या लोकाग्रमिति सिद्धः । सिद्धो - निष्ठितार्थः । " अर्थ - जिन के सब कार्य सिद्ध हो चुके हैं कोई काम करना बाकी नहीं रहा है, जहाँ जाकर जीव वापिस नहीं लौटता है किन्तु लोक के अग्रभाग पर जाकर स्थित हो जाता है, उसे सिद्ध कहते हैं । २. बुद्ध - 'ज्ञाततत्त्व: ' अर्थ- जिसने जीव अजीव आदि सभी तत्त्वों को जान लिया है उसे बुद्ध कहते हैं । अर्थात् केवलज्ञानी, केवलदर्शी - सर्वज्ञ सर्वदर्शी । Jain Education International ३. मुक्त - 'भवोपग्राहिकर्माशेभ्यः ' अर्थ - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन ४ घाती कर्मों के क्षय से केवलज्ञानी केवलदर्शी (सर्वज्ञ सर्वदर्शी) बने । वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र इन चार कर्मों को भवोपग्राहि-अघाती कर्म कहते हैं। ये जब तक क्षय नहीं होते हैं तब तक जीव भवस्थ केवली रूप में संसार में रहता है। इनके क्षय हो जाने पर अर्थात् आठों कर्मों का क्षय हो जाता है। तब जीव मुक्त कहलाता है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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