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समवायांग सूत्र
कि श्रोताओं को शंका करने का अवसर ही न आवे। १३. हृदय ग्राहित्व - ऐसा वचन बोलना किं श्रोताओं का मन आकृष्ट हो जाय और कठिन विषय भी सरलता से समझ में आ जाय। १४. देश काला व्यतीत्व - देश काल के अनुसार वचन बोलना। १५. तत्त्वानुरूपत्व - वस्तु का जैसा रूप हो वैसा ही उसका विवेचन करना। १६. अप्रकीर्णप्रसृतत्त्व - उचित विस्तार के साथ व्याख्यान करना अथवा असम्बद्ध अर्थ का कथन न करना एवं सम्बन्ध अर्थ.. का भी अत्यधिक विस्तार न करना। १७. अन्योन्यप्रगृहीतत्त्व - पद और वाक्यों का सापेक्ष होना। १८. अभिजातत्व - भूमिकानुसार विषय कहना। १९. अति स्निग्धमधुरत्व - भूखे को जैसे घी खांड का भोजन रुचिकर होता है। वैसे ही श्रोता के लिए वचन का रुचिकर होना। २०. अपरमर्मवेधित्त्व - दूसरे के मर्म - रहस्य का प्रकाश न करना। २१. अर्थधर्माभ्यासानपेतत्व-.. मोक्ष रूप अर्थ और श्रुत चारित्र रूप धर्म से सम्बद्ध होना। २२. उदारत्व - शब्द और अर्थ की उदारता होना। २३. परनिन्दात्मोत्कर्ष विप्रयुक्तत्व- दूसरे की निन्दा और आत्मप्रशंसा से रहित वचन बोलना। २४. उपगतश्लाघत्व - वचन में उपरोक्त गुण होने से वक्ता की श्लाघाप्रशंसा होना। २५. अनपनीतत्व - कारक, काल, लिंग, वचन आदि की विपरीतता रूप दोष न होना। २६. उत्पादिताविच्छिन्नकुतूहलत्व - श्रोताओं के चित्त में चमत्कार करने वाला वचन होना। २७. अद्भुतत्व - वचनों के अश्रुतपूर्व होने के कारण श्रोता के दिल में हर्ष रूप विस्मय का बना रहना। २८. अनतिविलम्बितत्व - विलम्ब रहित होना अर्थात् धारा प्रवाह से उपदेश देना। २९. विभ्रमविक्षेप किलिकिञ्चतादिविप्रयुक्त्व - वक्ता के मन में भ्रान्ति होना विभ्रम है। कहे जाने वाले विषय में उसका दिल न लगना विक्षेप है। रोष, भय, लोभ आदि भावों के सम्मिश्रण को किलिकिञ्चित कहते हैं। इन दोषों से तथा मन के अन्य दोषों से रहित होना। ३०. विधिवत्व - वर्णनीय वस्तुओं के विविध प्रकार की होने के कारण वाणी में विचित्रता होना। ३१. आहितविशेषत्व- दूसरें पुरुषों की अपेक्षा वचनों में विशेषता होने के कारण श्रोताओं को विशिष्ट बुद्धि प्राप्त होना। ३२. साकारत्व - वर्ण, पद और वाक्यों का अलग अलग होना ३३. सत्त्वपरिगृहीतत्व - भाषा का ओजस्वी, प्रभावशाली होना। ३४. अपरिखेदित्व - उपदेश देते हुए थकावट का अनुभव न करना। ३५. अव्युच्छेदित्व - जो विषय समझाना है उसकी जब तक सम्यक् प्रकार से सिद्धि न हो तब तक बिना व्यवधान के व्याख्यान करते रहना। इनमें पहले सात अतिशय शब्द की अपेक्षा से हैं और बाद के अट्ठाईस अतिशय अर्थ की अपेक्षा से हैं।
सतरहवें तीर्थङ्कर श्री कुन्थुनाथ स्वामी के शरीर की ऊंचाई पैंतीस धनुष की थी। सातवें
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