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समवायांग सूत्र
यहाँ पर 'समुप्पजंति' का अर्थ होते हैं ऐसा करना चाहिये। किन्तु 'उत्पन्न होते हैं ऐसा अर्थ नहीं करना चाहिये क्योंकि तीर्थङ्कर का जन्म आधी रात को होता है। जब महाविदेह क्षेत्र में दिन होता है तब भरत क्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में रात होती है और जब भरत और ऐरवत में दिन होता है तब महाविदेह क्षेत्र में रात होती है। इसलिये चौंतीस तीर्थङ्करों का जन्म एक साथ नहीं हो सकता है किन्तु चार तीर्थङ्करों का जन्म एक साथ होता है। चौंतीस तीर्थङ्कर एक साथ पाये जा सकते हैं। महाविदेह के ३२ ही विजय में तीर्थङ्कर हों और उसी समय में भरत और ऐरवत में भी तीर्थङ्कर हों तो चौतीस तीर्थङ्कर एक साथ पाये जा सकते हैं। इसीलिये ५ भरत और ५ ऐरवत के दस तीर्थङ्कर तथा महाविदेह के १६० तीर्थङ्कर इस प्रकार उत्कृष्ट १७० तीर्थङ्कर (देवाधिदेव) एक साथ पाये जा सकते हैं। चक्रवर्ती एक साथ एक सौ पचास तथा वासुदेव भी एक सौ पचास एक साथ पाये जा सकते हैं। किन्तु एक सौ सित्तर नहीं ।
मेरु पर्वत पर पण्डकवन है। उस वन में तीर्थङ्कर भगवन्तों का जन्माभिषेक करने के लिये चार अभिषेक शिलायें हैं। यथा - १. पंडुशिला २. पंडुकंबलशिला ३. रक्तशिला ४. रक्तकम्बलशिला। मेरु पर्वत के पूर्व दिशा में पण्डुशिला है उस पर दो सिंहासन हैं। उन दोनों पर पूर्व महाविदेह के दो तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक किया जाता है। मेरु पर्वत के पश्चिम में पण्डक वन में रक्तशिला है उस पर दो सिंहासन पश्चिम महाविदेह के दो तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक किया जाता है। इस प्रकार चार तीर्थङ्करों का जन्म एक साथ हो सकता है। यह पहले बताया जा चुका है कि तीर्थङ्करों का जन्म आधी रात्रि में होता है। इसलिये जब महाविदेह में तीर्थङ्करों का जन्म होता है उस समय भरत क्षेत्र और एरवत क्षेत्र में दिन होता है। इसलिये वहाँ उस समय तीर्थङ्करों का जन्म नहीं होता है। मेरु पर्वत के दक्षिण में पण्डकवन में पण्डुकम्बलशिला है। उस पर एक सिंहासन है। उस पर भरत क्षेत्र के तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक किया जाता है। इसी प्रकार मेरु पर्वत के उत्तर में पण्डक वन में रक्तकम्बलशिला है उस पर एक सिंहासन है। वहाँ ऐरवत क्षेत्र के तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक किया जाता है। निष्कर्ष यह है कि - चार तीर्थङ्करों का जन्म एक साथ हो सकता है इससे अधिक नहीं ।
३४. अतिशयों में से दूसरे से लेकर पांचवें तक के चार अतिशय तीर्थङ्कर भगवान् के जन्म से ही होते हैं। २१ से ३४ तक तथा भामण्डल (बारहवाँ) अतिशय, ये कुल १५ अतिशय घाती कर्म के क्षय से उत्पन्न होते हैं। शेष १५ अतिशय देवकृत होते हैं अर्थात् पहला तथा छठे से लेकर बीसवें तक (बारहवाँ भामण्डल नामक अतिशय को छोड़ कर) ये पन्द्रह अतिशय।
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