________________
समवाय ३४ •*•*•FFFFFF•I•I•I•I•I•I•I•I•F
देते हैं। क्योंकि नीहार (बड़ीनीत) करते वक्त थोड़े समय के लिये भी नग्न दिखाई नहीं देते हैं तो जीवनपर्यंत सारे दिन नग्न दिखाई देते हों, यह संभव नहीं है ।
तीर्थङ्कर भगवान् की वाणी सब प्राणियों को अपनी अपनी भाषा में परिणत हो जाती है यह उस वाणी की विशेषता है जैसे कि कहा है
देवाः दैवीं नराः नारीं, शबराश्चापि शाबरीम् । तिर्यञ्चोऽपि तैरिश्चीं, मेनिरे भगवद् गिरम् ॥
अर्थात् तीर्थङ्कर भगवान् की वाणी देवता देव भाषा में, मनुष्य मनुष्यों की भाषा में, शबर अर्थात् अनार्य लोग अनार्य भाषा में और तिर्यञ्च तिर्यञ्चों की भाषा में समझते हैं यह तीर्थङ्कर वाणी की विशेषता है। भगवान् तो अर्द्धमागधी भाषा में फरमाते हैं। उनकी वाणी एक योजन तक सुनाई देती है इसका अर्थ यह है कि परिषद् लम्बी चौड़ी फैली हुई हो तो वह वाणी एक योजन तक भी सुनाई दे सकती है किन्तु यदि वे धीरे बातचीत करना चाहें तो धीरे भी कर सकते हैं। जैसे कि गौतम स्वामी आदि प्रश्नोत्तर के समय ।
-
'इति' सात प्रकार की बतलायी गई है।
-
Jain Education International
-
१७३
अतिवृष्टिरनावृष्टिः, मूषकाः शलभाः खगाः । स्वचक्रं परचक्रं च सप्तैताः ईतयः समृताः ॥
अर्थ - अधिक वर्षा होना, जिससे कि फसल नष्ट हो जाय । अनावृष्टि - वर्षा का सर्वथा अभाव जिससे कि धान्य पैदा न हो और दुष्काल सा पड़ जाय । चूहों की तथा टीड पतंगों की और पक्षियों की अधिक उत्पत्ति हो जिससे कि पैदा हुई खेती को नुकसान पहुँचा दे। अपने देश के राजा का भय अपनी प्रजा को लूट ले, दुःखित करे आदि । दूसरे राजा का भय - वह राजा अपने देश पर कब आक्रमण कर दे।
?
तीर्थङ्कर भगवान् जहाँ विचरते हैं वहाँ ये 'इतियाँ' नहीं होती हैं।
प्रत्येक चक्रवर्ती छह खण्ड को साध कर चक्रवर्ती पद को प्राप्त करता है। इन छह खण्डों को विजय करता है। इसलिये इनको 'विजय' कहते हैं।
वैताढ्य पर्वत दो प्रकार के होते है - दीर्घ (लम्बा) वैताढ्य और वृत्त (गोल) वैताढ्य । भरत क्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में एक-एक दीर्घ वैताढ्य पर्वत है और महाविदेह क्षेत्र में बत्तीस दीर्घ वैताढ्य पर्वत हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीप में कुल ३४ दीर्घ वैताढ्य पर्वत हैं ।
मूल पाठ में लिखा है -
'जंबूद्दीवे णं दीवे उक्कोसए चोत्तीसं तित्थयरा समुप्पज्जंति ।'
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org