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________________ समवाय ३४ . १७१ ८. उनके दोनों तरफ श्रेष्ठ-श्वेत (सफेद) चंवर बिंजाते रहते हैं। ९. तीर्थङ्कर भगवान् के लिए. आकाश के समान स्वच्छ, स्फटिक मणियों का बना हुआ पादपीठिका सहित सिंहासन होता है। १०. आकाश में बहुत ऊंचा छोटी छोटी हजारों पताकाओं से परिमण्डित इन्द्रध्वज तीर्थङ्कर भगवान् के आगे चलता है। ११. जहाँ जहाँ पर तीर्थङ्कर भगवान् खड़े रहते हैं अथवा बैठते हैं वहाँ वहाँ पर उसी समय पत्र, पुष्प और पल्लवों से सुशोभित छत्र ध्वजा घण्टा और पताका सहित अशोक वृक्ष प्रकट होकर उन पर छाया करता है १२. भगवान् के कुछ पीछे मस्तक के पास अत्यन्त देदीप्यमान भामण्डल रहता है, वह अन्धकार में भी दसों दिशाओं को प्रकाशित करता है १३. जहाँ भगवान् विचरते हैं वहाँ का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय हो जाता है। १४. जहाँ भगवान् विचरते हैं वहाँ कांटे अधोमुख हो जाते हैं। १५. जहाँ भगवान् विचरते हैं वहाँ ऋतुएं सुख स्पर्श वाली यानी अनुकूल हो जाती हैं। १६. जहाँ भगवान् विचरते हैं वहाँ शीतल सुख स्पर्श वाले सुगन्धित संवर्तक वायु से चारों तरफ एक एक योजन तक क्षेत्र शुद्ध साफ हो जाता है। १७.जहाँ भगवान् विचरते हैं वहाँ मेघ उचित परिमाण में बरस कर आकाश और पृथ्वी पर रही हुई रज को शान्त कर देते हैं। १८. भगवान् जहाँ विचरते हैं वहाँ जल में उत्पन्न होने वाले कमल और स्थल में उत्पन्न होने वाले चम्पा आदि पांच प्रकार के अचिंत्त फूलों की जानुप्रमाण - घुटने तक देवकृत पुष्पवृष्टि होती है। १९. भगवान् जहाँ विचरते हैं वहाँ अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध नहीं रहते हैं। २०. भगवान् जहाँ विचरते हैं वहाँ मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध प्रकट होते हैं २१. उपदेश देते समय भगवान् का स्वर अतिशय हृदय स्पर्शी होता है और एक योजन तक सुनाई देता है। २२. तीर्थङ्कर भगवान् अर्द्धमागधी भाषा में धर्मोपदेश फरमाते हैं. २३. भगवान् के मुख से फरमाई हुई उस अर्द्धमागधी भाषा में यह विशेषता होती है कि उसको आर्य, अनार्य, द्विपद चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृप-सांप आदि सब अपनी अपनी भाषा में समझते हैं और वह उन्हें हितकारी, कल्याणकारी एवं सुखकारी प्रतीत होती है। २४. पहले से जिनके वैर बंधा हुआ है ऐसे वैमानिक देव, असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व और महोरग आदि सब तीर्थङ्कर भगवान् के चरणों में आकर अपना वैर भूल जाते हैं और शान्त चित्त होकर धर्मोपदेश सुनते हैं। २५. भगवान् के पास आये हुए अन्यतीर्थिक उन्हें वन्दना करते हैं। २६. भगवान् के चरणों में आते ही वे निरुत्तर हो जाते हैं। २७. जहाँ जहाँ तीर्थकर भगवान् विहार करते हैं वहाँ वहाँ पर पच्चीस योजन यानी सौ कोस के अन्दर ईति-चूहे आदि जीवों से धान्य का उपद्रव नहीं होता है। २८. मारी - जनसंहारक प्लेग आदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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