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________________ समवायांग सूत्र पद्मउत्पलगंध- पद्म और नील कमल की सुगंध युक्त, पच्छण्णे प्रच्छन्न, मंसचक्खुणा चर्म चक्षु वालों को, आगासगयं चक्कं - आकाश में धर्म चक्र रहता है, सेयवर चामराओ - दोनो तरफ श्वेत चंवर बिंजाते रहते हैं, कुडभीसहस्स परिमंडियाभिरामो - छोटी छोटी हजारों पताकाओं से परिमण्डित, इंदज्झओ - इन्द्रध्वज, संछण्णपत्तपुप्फपल्लवसमाउलो पत्र, पुष्प और पल्लवों से आच्छादित, सच्छत्तो सज्झओ सघंटो सपडागो - छत्र, ध्वजा, घण्टा और पताका सहित, असोगवर पायवो श्रेष्ठ अशोक वृक्ष, अभिसंजायए - प्रकट हो कर छाया करता है, तेयमंडलं तेजमण्डल - देदीप्यमान भामण्डल, अहोसिरा अधोमुख, उऊ - ऋतुएं, अविवरीय अविपरीत, सुहफासा सुख स्पर्श वाली, जायंति हो जाती हैं, मारुएणं- संवर्तक वायु से, संपमज्जिज्जइ - शुद्ध साफ हो जाता है, जुत्तफुसिएण उचित जलबिन्दु का गिरना, मेहेण मेघ के द्वारा, णिहयरयरेणुयं आकाश और पृथ्वी पर रही हुई रज को शान्त कर देना, जलथलयभासुरपभूएणं जल और स्थल में उत्पन्न होने वाले कमल चम्पा आदि, जाणुस्सेहप्पमाणमित्ते जानु प्रमाण- घुटने तक, पच्चाहरओ - उपदेश देते समय, हिययगमणीओ - हृदय स्पर्शी, जोयणणीहारी एक योजन तक सुनाई देता है, दुप्पयचउप्पय-मियपसुपक्खि सरीसिवाणं द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृप - सांप आदि, हियसिव सुहय भासत्ताए हितकारी, कल्याणकारी और सुखकारी प्रतीत होती है, पुव्वबद्धवेरा - पहले का बंधा हुआ वैर, पसंतचित्तमाणसा शांत चित्त होकर, णिसामंति - सुनते हैं, णिप्पलिवयणा निष्प्रतिवचना - निरुत्तर, अइवुट्ठी - अति वृष्टि, पुष्प्पण्णा - पहले से उत्पन्न हुए, उप्पाइया - उत्पात, वाही - व्याधियाँ, शांत हो जाती हैं। मं १७० - Jain Education International - - - - भभभमनननननननननननननननम् For Personal & Private Use Only - - भावार्थ - तीर्थङ्कर भगवान् के चौतीस अतिशय कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं १. तीर्थङ्कर भगवान् के मस्तक और दाढी मूछ के केश बढ़ते नहीं हैं। उनके शरीर के रोम और नख भी बढ़ते नहीं हैं, सदा अवस्थित रहते हैं । २. उनका शरीर नीरोग रहता है और मल वगैरह अशुचि का लेप नहीं लगता है । ३. उनके शरीर का मांस और रक्त गाय के दूध की तरह सफेद होते हैं । ४. उनके श्वासोच्छ्वास में पद्म और नील कमल की तथा पद्मक और उत्पल कुष्ट गन्ध द्रव्य विशेष की सुगन्ध आती है । ५. उनका आहार और नीहार प्रच्छन्न होता है, चर्मचक्षु वालों को (छद्मस्थों को) दिखाई नहीं देता है। उपरोक्त पांच अतिशयों में से पहले अतिशय को छोड़ कर बाकी चार अतिशय उनके जन्म से ही होते हैं ६. तीर्थङ्कर भगवान् के आगे आकाश में धर्मचक्र रहता है । ७. उनके ऊपर तीन छत्र रहते हैं। - www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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