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समवाय ३२
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दधम्मया - आपत्सु दृढधर्मता-आपत्ति आने पर भी साधु साध्वी को धर्म में दृढ़ रहना,
अणिस्सिओवहाणे - अनिश्रित उपधान-तप में दूसरों की सहायता की इच्छा न करना, णिपडिकम्मया - निष्प्रतिकर्मता-शरीर संस्कार एवं श्रृंगार न करना, अणायया - अज्ञातताअज्ञात तप करना, तितिक्खा - तितिक्षा-सहनशील हो कर परीषह-उपसर्गों को सहन करना, सुविही - सुविधि-सदनुष्ठान-उत्तम कार्य करना, अत्तदोसोवसंहारे - आत्मदोषोपसंहार-अपने दोषों की शुद्धि व उनका निरोध करना। ___भावार्थ - योग संग्रह - मन वचन काया के शुभ व्यापार प्रवृत्ति को 'योग' कहते हैं। योगों का संग्रह करना 'योग संग्रह' कहलाता है। इसके बत्तीस भेद कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. मोक्ष के साधन भूत शुभयोगों का संग्रह करने के लिए शिष्य को गुरु के पास सम्यक् आलोचना करनी चाहिए २. निरपलाप - गुरु को भी मुक्ति के योग्य शुभ योगों का संग्रह करने के लिए शिष्य द्वारा की गई आलोचना किसी से भी न कहनी चाहिए ३. आपत्ति . आने पर भी चतुर्विध संघ को अपने धर्म में दृढ़ रहना चाहिए ४. अनिश्रितोपधान - इहलौकिक और पारलौकिक फल की इच्छा रहित होकर तप करना चाहिए। तप में दूसरे की सहायता की अपेक्षा भी न करनी चाहिए ५. शिक्षा - सूत्रार्थ ग्रहण रूप ग्रहण शिक्षा और प्रतिलेखन आदि आसेवन शिक्षा का अभ्यास करना चाहिए ६. नि तिकर्मता - साधु को अपने शरीर का संस्कार एवं शृङ्गार न करना चाहिए ७. अज्ञातता - साधु को यश और पूजा की कामना न करते हुए इस प्रकार तप करना चाहिए कि किसी के आगे प्रकाशित न करना चाहिए ८. अलोभ-साधु को निर्लोभी होना चाहिए ९. तितिक्षा - साधु को सहनशील होकर परीषह उपसर्गों पर विजय प्राप्त करनी चाहिए १०. आर्जव साधु को सरल होना चाहिए। ११. शुचिसाधु को सत्यवादी और संयमी होना चाहिए १२. समदृष्टि - साधु को सम्यग् दृष्टि होना चाहिए और सम्यग् दर्शन की शुद्धि रखनी चाहिए १३. समाधि-साधु को समाधिवन्त अर्थात् प्रसन्न चित्त रहना चाहिए १४. आचार-साधु को चारित्रशील होना चाहिए, साधु का आचार पालने में माया न करनी चाहिए १५. विनयोपगत - साधु को विनीत-नम्र होना चाहिए, मान नहीं करना चाहिए १६. धृतिमान् - साधु को धैर्यवान् होना चाहिए, उसे कभी दीन भाव न लाना चाहिए १७. संवेग - साधु में संवेगभाव यानी संसार का भय और मोक्ष की अभिलाषा होनी चाहिए १८. प्रणिधि - साधु को छल कपट का त्याग करना चाहिए, उसे कभी माया शल्य का सेवन न करना चाहिए १९. सुविधि - साधु को सदनुष्ठान-उत्तम कार्य करना चाहिए २०. संवर - साधु को संवरशील होना चाहिए, उसे नवीन कर्मों को आत्मा में आने से
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