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________________ समवाय २७ १२७ विरमण - चोरी से निवृत्ति ४. मैथुन विरमण-मैथुन से निवृत्ति ५. परिग्रह विरमण-परिग्रह से निवृत्ति ६. श्रोत्रेन्द्रिय निग्रह ७. चक्षुइन्द्रिय निग्रह ८. घ्राणेन्द्रिय निग्रह ९. जिह्वा इन्द्रिय का निग्रह १०. स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह अर्थात् पांचों इन्द्रियों को वश में रखना। ११. क्रोध विवेक-क्रोध का त्याग १२. मान विवेक-मान का त्याग १३. माया विवेक - माया का त्याग १४. लोभ विवेक - लोभ का त्याग १५. भाव सत्य अर्थात् अन्तःकरण की शुद्धि १६. करण सत्य अर्थात् वस्त्र, पात्र आदि की प्रतिलेखना तथा अन्य क्रियाओं को शुद्ध उपयोग पूर्वक करना। १७. योग सत्य अर्थात् मन वचन काया रूप तीनों योगों की शुभ प्रवृत्ति करना। १८. क्षमा अर्थात् क्रोध और मान को उदय में ही न आने देना १९. विरागता - निर्लोभता अर्थात् माया और लोभ को उदय में ही न आने देना २०. मन समाहरणता (मनसमाधारणता)मन की शुभ प्रवृत्ति २१. वचन समाहरणता (वचनसमाधारणता) - वचन की शुभ प्रवृत्ति २२. काय समाहरणता (कायसमाधारणता) - काया की शुभ प्रवृत्ति २३. ज्ञान सम्पन्नता २४. दर्शन सम्पन्नता २५. चारित्र सम्पन्नता २६. वेदनातिसहनता (वेदनाधिसहनता) - शीत, ताप तथा शारीरिक वेदना को समभाव से सहन करना २७. मारणान्ति-कातिसहनता (मारणान्तिकाधिसहनता) - मृत्यु के समय होने वाले कष्टों को समभाव से सहन करना और ऐसा विचार करना कि ये मेरे कल्याण के लिए हैं। इस जम्बूद्वीप में अभिजित् नक्षत्र को छोड़ कर शेष सत्ताईस नक्षत्रों से लौकिक व्यवहार चलता है। प्रत्येक नक्षत्र मास अहोरात्र की अपेक्षा से सत्ताईस रात दिन का कहा गया है। नक्षत्र मास का यह परिमाण अहोरात्र की अपेक्षा से समझना चाहिए सर्वथा नहीं, क्योंकि उसका परिमाण २७ २१ दिन का है। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे देवलोक में विमानपृथ्वी अर्थात् विमानों की भूमि सत्ताईस सौ योजन मोटी-जाड़ी कही गई है। वेदक सम्यक्त्व के बन्ध से निवर्तने वाले जीव के मोहनीय कर्म की सत्ताईस उत्तर प्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं। श्रावणशुक्ला सप्तमी के दिन पोरिसी. की छाया सत्ताईस अङ्गुल की होती है। उसके बाद दिन के प्रकाश को घटाता हुआ और रात्रि के अन्धकार को बढ़ाता हुआ सूर्य परिभ्रमण करता है। अर्थात् श्रावण शुक्ला सप्तमी को सत्ताईस अङ्गल की पोरिसी मानी जाती है। उसके बाद दिन घटता जाता है और रात्रि बढ़ती जाती है। इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की कही गई है। तमःतमा नामक सातवीं नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति सत्ताईस सागरोपम की कही गई है। असुरकुमार देवों में कितनेक देवों की स्थिति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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