________________
समवाय २५
१२३
हैं। अतएव अपना विकास और उत्थान चाहने वाले व्यक्ति को तदनुकूल विचार रखने चाहिए। मोक्षाभिलाषी आत्मा के लिए आवश्यक है कि वह ज्ञान दर्शन चारित्र की वृद्धि करने वाली बातों पर विचार करे, उन्हीं का चिन्तन मनन और ध्यान करे। उनके मार्गदर्शन के लिए शास्त्रकारों ने धर्म भाव बढ़ाने वाली आध्यात्मिक भावनाओं का वर्णन किया है। मुमुक्षु की जीवन शुद्धि के लिये विशेष उपयोगी बारह विषयों को चुन कर शास्त्रकारों ने उनके चिन्तन और मनन का उपदेश दिया है। इससे यह स्पष्ट है कि - यहां भावना से सामान्य भावना इष्ट नहीं है। परन्तु विशेष शुभ भावना अभिप्रेत है। - भावना की व्याख्या यों की गयी हैं - संवेग, वैराग्य और भाव शुद्धि के लिए आत्मा और जड़ पदार्थों के संयोग वियोग पर गहरा उतर कर विचार करना। इस प्रकार की अनित्य भावना आदि बारह भावना हैं। जिनका वर्णन शान्त सुधा रस, भावना शतक, ज्ञानार्णव, प्रवचन सारोद्धार और तत्त्वार्थाधिगम भाष्य आदि अनेक ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसका सामान्य विवेचन जैन सिद्धान्त बोल संग्रह के चौथे भाग में हिन्दी में दिया गया है।
- यहाँ उन भावनाओं का वर्णन नहीं है किन्तु पांच महाव्रतों की भावनाओं का वर्णन है। जिसका अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार दिया है -
"प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणमहाव्रतसंरक्षणाय भाव्यन्ते इति भावना"
अर्थ - प्राणातिपात निवृत्ति रूप पांच महाव्रतों की सुरक्षा के लिए जो भावित की जाती हैं उन्हें भावना कहते हैं। इन भावनाओं को भावित करने से महाव्रतों के पालन में दृढ़ता आती है और उनमें किसी प्रकार का अतिचार नहीं लगता है। महाव्रतों का निरअतिचार पालन करने से. उत्कृष्ट भावना बनने पर तीर्थङ्कर गोत्र बन्धता है। प्रत्येक महाव्रत की पांच-पांच भावनाएं हैं। जिनका वर्णन ऊपर भावार्थ में कर दिया है।
. प्रश्नव्याकरण सूत्र के प्रथम संवर द्वार में तथा आवश्यक सूत्र में भी पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का वर्णन किया गया है। किन्तु यहाँ के नामों में ओर वहाँ के नामों में परस्पर अन्तर है। वह वाचना भेद समझना चाहिये ।
. जो विकलेन्द्रिय (बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय) मिथ्या दृष्टि है, अपर्याप्तक है और उसमें भी संक्लिष्ट परिणाम वाला है। वह तिर्यञ्च गति आदि २५ प्रकृतियों को बान्धता है। इसका अभिप्राय यह है कि जो विकलेन्द्रिय सम्यग्दृष्टि है, पर्याप्तक है और संक्लिष्ट परिणाम वाला नहीं है। वह इन अपर्याप्तक प्रायोग्य प्रकृतियों को नहीं बांधता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org