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________________ समवायांग सूत्र समुप्पजइ। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे चउवीसाए भवग्गहणेहिं सिन्झिस्संति बुज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ २४ ॥ ___कठिन शब्दार्थ - देवाहिदेवा - देवाधिदेव, जीवाओ - जीवाएं, किंचि - कुछ, विसेसाहियाओ-विशेषाधिक - कुछ विशेष अधिक, देवठाणा - देव स्थान, सइंदया - इन्द्र सहित, अणिंदा - अणिंद्रा-इन्द्र रहित, अपुरोहिया - अपुरोहित-पुरोहित रहित, अहमिंदा - अहमिन्द्र, उत्तरायणगए सूरिए - उत्तरायण में गया हुआ सूर्य, पोरिसी छायं - पोरिसी छाया को, णिव्वत्तइत्ता - निष्पन्न करके, णियट्टइ - वापिस लौट जाता है, रत्तारत्तवईओ - रक्ता और रक्तवती, वित्थारेणं - विस्तार, हेट्ठिम उवरिम - अथस्तन, उपरितन - ऊपर का अर्थात् तीसरा ग्रैवेयक, हेट्ठिम मज्झिम - अधस्तन मध्यमदूसरा ग्रैवेयक। भावार्थ - देवाधिदेव यानी देवों के भी देव अर्थात् इन्द्रों के भी पूजनीय तीर्थङ्कर भगवान् चौबीस कहे गये हैं। उनके नाम इस प्रकार है - १. श्री ऋषभदेव स्वामी २. श्री अजितनाथ स्वामी ३. श्री सम्भवनाथ स्वामी ४. श्री अभिनन्दन स्वामी ५. श्री सुमतिनाथ स्वामी ६. श्री पद्मप्रभ स्वामी ७. श्री सुपार्श्वनाथ स्वामी ८. श्री चन्द्रप्रभ स्वामी ९. श्री सुविधिनाथ स्वामी १०. श्री शीतलनाथ स्वामी ११. श्री श्रेयांसनाथ स्वामी १२. श्री वासुपूज्य स्वामी १३. श्री विमलनाथ स्वामी १४. श्री अनन्तनाथ स्वामी १५. श्री धर्मनाथ स्वामी १६. श्री शान्तिनाथ स्वामी १७. श्री कुन्थुनाथ स्वामी १८. श्री अरनाथ स्वामी १९. श्री मल्लिनाथ स्वामी २०. श्री मुनिसुव्रत स्वामी २१. श्री नमिनाथ स्वामी २२. श्री नेमिनाथ स्वामी २३. श्री पार्श्वनाथ स्वामी २४. श्री वर्धमान स्वामी। मेरु पर्वत से दक्षिण दिशा में भरत क्षेत्र की मर्यादा करने वाला चुल्लहिमवंत पर्वत और मेरु से उत्तर दिशा में ऐरवत क्षेत्र की मर्यादा करने वाला शिखरी पर्वत है, उन दोनों पर्वतों की जीवाएँ २४९३२ चौबीस हजार नौ सौ बत्तीस और एक योजन का अड़तीसवाँ भाग कुछ अधिक लम्बी कही गई है। १० भवनपति, ८ वाणव्यन्तर, ५ ज्योतिषी और १ वैमानिक, ये चौबीस देवस्थान इन्द्र सहित कहे गये हैं अर्थात् इनमें इन्द्र होते हैं। बाकी सब देवस्थान यानी नव ग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमानों में इन्द्र और पुरोहित नहीं होते हैं अर्थात् उनमें स्वामी सेवक का भाव नहीं होता है। वे सब अहमिन्द्र होते हैं। उत्तरायण में गया हुआ सूर्य अर्थात् सर्वाभ्यन्तर मण्डल में गया हुआ सूर्य कर्क संक्रान्ति के दिन पोरिसी छाया को चौबीस अङ्गुल करके वापिस लौट जाता है अर्थात् फिर द्वितीय मण्डल में आ जाता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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