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समवाय २२
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१. केवली कवलाहार (केवली भुक्ति)
२. स्त्री मुक्ति। . ३. सवस्त्र मुक्ति।
दिगम्बर सम्प्रदाय इन तीन बातों को नहीं मानती है। श्वेताम्बर सम्प्रदाएं इन तीन बातों को मानती है।
इन बावीस परीषहों में से कुछ परीषह परस्पर विरोधी हैं। जैसे शीत और उष्ण। अर्थात् । शीत परीषह के होने पर उष्ण परीषह नहीं होता है और उष्ण परीषह के होने पर शीत परीषह नहीं होता है।
इसी प्रकार चर्या (विहार के कारण होने वाला कष्ट) और निषद्या (अधिक बैठे रहने से होने वाला कष्ट) ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते। इसलिये एक जीव में एक साथ अधिक से अधिक २० परीषह हो सकते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र में तो बताया है कि - चर्या, शय्या और निषद्या इन तीनों में से भी एक समय में एक ही परीषह संभव है। इसलिये एक जीव में एक साथ १९ परीषह ही हो सकते हैं। - कुछ की यह मान्यता है कि - पहले गुणस्थान से लेकर नौवें गुणस्थान तक बाईस ही परीषह हो सकते हैं। किन्तु यह मान्यता आगमानुकूल नहीं है। क्योंकि ऊपर यह बताया जा चुका है कि - ये परीषह साधु साध्वियों के ही होते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के दूसरे अध्ययन में
बाईस परीषहों का विस्तृत वर्णन है। जैन संस्कृति रक्षक संघ सैलाना (ब्यावर) से प्रकाशित . उत्तराध्ययन सूत्र में हिन्दी अनुवाद और विवेचन में बाईस परीषहों का अच्छा खुलासा किया गया है। __श्री मधुकर जी वाले समवायाङ्ग में तथा तत्त्वार्थ सूत्र के ९ वें अध्याय में बाईसवें परीषह का नाम "अदर्शन" परीषह दिया है। तत्त्वार्थ सूत्र में इसका अर्थ इस प्रकार किया है - "सूक्ष्म और अतीन्द्रिय पदार्थों का दर्शन न होने से स्वीकृत त्याग निष्फल प्रतीत होने पर विवेक पूर्वक श्रद्धा रखना और प्रसन्न रहना।"
किन्तु पूज्य आचार्य श्री घासीलालजी म. सा. के समवायाङ्ग में तथा नवाङ्गी टीकाकार अभयदेव कृत समवायाङ्ग में और उत्तराध्ययन सूत्र के दूसरे अध्ययन में दर्शन परीषह दिया है तथा इसका दूसरा नाम सम्मत्त परीषह भी दिया है। इसलिये आगम पाठ के अनुसार ये दोनों नाम उचित हैं।
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