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समवायांग सूत्र
पुष्पकान्त, पुष्पवर्ण, पुष्पलेश्य, पुष्पध्वज, पुष्पश्रृङ्ग, पुष्पसृष्ट या पुष्पसिद्ध, पुष्पोत्तरावत्तंसक, इन इक्कीस विमानों में जो देव देव रूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरोपम की कही गई है। वे देव बीस पखवाड़ों से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को बीस हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो बीस भवों से सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ॥ २० ॥
विवेचन - जिस कार्य को करने से चित्त में शान्ति लाभ हो तथा वह चित्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप मोक्ष मार्ग में लगा रहे उसे समाधि कहते हैं। ज्ञानादि के अभाव रूप अप्रशस्त भाव को तथा चित्त की अशान्ति को असमाधि कहते हैं। यहाँ बतलाये गये बीस कारणों का सेवन करने से स्वयं की आत्मा को एवं पर की आत्मा को तथा उभय (दोनों) की आत्मा को इस लोक और परलोक में असमाधि उत्पन्न होती है। इन स्थानों का सेवन करने से चित्त दूषित होकर चारित्र को मलिन कर देता है। इसलिये ये असमाधि स्थान कहे जाते हैं। आत्मार्थी पुरुष को इन बीस स्थानों का वर्जन करके आगमानुसार प्रवृत्ति करनी चाहिये। इसका विस्तृत वर्णन दशाश्रुतस्कन्ध की पहली दशा में किया गया है। जिसका हिन्दी अनुवाद श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह के छठे भाग में दिया गया है।
बर्फ की तरह गाढे जमे हुए पानी को घनोदधि कहते हैं। पहली से लेकर सातवीं नरक तक प्रत्येक नरक के नीचे २०-२० हजार योजन का घनोदधि आया हुआ है। यह नरकों के नीचे प्रतिष्ठान रूप आधार है। घनोदधि के नीचे असंख्यात योजन का घनवाय (ठोस वायु) है और घनवाय के नीचे असंख्यात योजन का तनुवाय है। तनुवाय के नीचे असंख्यात योजन का आकाश है। इस प्रकार नरक की स्थिति है।
दस कोडाकोडी सागरोपम का एक उत्सर्पिणी काल होता है। उसी प्रकार दस कोडाकोडी सागरोपम का एक अवसर्पिणी काल होता है। २० कोडाकोडी सागरोपम का एक कालचक्र (उत्सर्पिणी अवसर्पिणी मण्डल) होता है।
यहाँ मूल में नपुंसक वेदनीय लिखा है। नपुंसक वेद मोहनीय कर्म की प्रकृति है। इसलिये इसका ऐसा अर्थ समझना चाहिये कि - नपुंसक वेद इस प्रकार वेदा (भोगा) जाता है इसलिये इसको वेदनीय कह दिया गया है। इसकी बन्ध स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपन की है।
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