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समवायांग सूत्र
को भला भी जाने नहीं । मन वचन काया से । अर्थात् तीन करण तीन योग से औदारिक सम्बन्धी काम भोगों का त्याग करना। इसी प्रकार देव सम्बन्धी कामभोगों का भी तीन करणतीन योगों से त्याग करे । इस प्रकार ब्रह्मचर्य के अठारह भेद बतलाये गये हैं । ब्रह्मचर्य का पर्यायवाची शब्द शील भी है । साधु साध्वी के आचार को भी शील कहते हैं। उसके एक गाथा द्वारा अठारह हजार भेद बतलाये गये हैं । वह गाथा इस प्रकार है यथा
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til करेंति मसाणिज्जियाहार सण्णा सोइंदिए । मुणी वंदे ॥
पुढवीकायारंभं खंतिजुया ते
इस गाथा में तीन करण, तीन योग, चार संज्ञा, पांच इन्द्रिय, पृथ्वीकायादि का आरंभ दस (पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय और अजीव का आरंभ ) और दस श्रमण धर्म, (खंति, मुत्ति, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, बंभचेर वासे) इनका संकेत है । क्षान्ति आदि स श्रमण धर्म ध्रुवशील हैं। इनका दशविध जीवादि आरंभ के साथ क्रमशः संयोग और गुणाकार करने से अठारह हजार (१८०००) भेद होते हैं । अर्थात् उपरोक्त गाथा की १८००० गाथाएं हो जाती हैं। इसकी विधि इस प्रकार है । यथा
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दस प्रकार के श्रमण धर्म को पुढवीकायादि दस के साथ गुणा करने से १०० भेद होते हैं। इन १०० भेदों को श्रोत्रेन्द्रिय आदि पांच इन्द्रियों के साथ गुणा करने पर ५०० भेद होते हैं । इन ५०० को आहारादि चार संज्ञाओं के साथ गुणा करने से २००० भेद होते हैं । इनको मन, वचन, काया इन तीन योगों से गुणा करने से ६००० भेद होते हैं। इन ६००० को तीन करण (करना, कराना, अनुमोदना) के साथ गुणा करने पर १८००० भेद हो जाते हैं। इस प्रकार इस एक ही गाथा की १८००० गाथा बन जाती है। इस गाथा को फेरने से ध्यान की बड़ी एकाग्रता बनती है। इस गाथा को उपयोग पूर्वक फेरना ध्यान की उत्कृष्ट साधना है ।
वर्तमान में प्रचलित जितनी भी ध्यान पद्धतियाँ हैं वे सब इस गाथा की ध्यान पद्धति के आगे फीकी पड़ जाती है । क्योंकि वे सब पद्धतियाँ प्रायः शरीर को लक्ष्य करके चलती है । " किन्तु साधक का ध्यान तो आत्म लक्षी होना चाहिए। औपपातिक सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अनगारों का वर्णन है । वे सब आध्यात्मिक ध्यान करते थे । किन्तु वर्तमान में प्रचलित शारीरिक प्राणायाम की तरह ध्यान नहीं करते थे । वे आध्यात्मिक अनगार थे । शरीर की सेवा, शुश्रूषा की तरफ उनका लक्ष्य नहीं था ।
व्रत छह आदि अठारह स्थानों का वर्णन दशवैकालिक सूत्र के छठे अध्ययन में विस्तार • पूर्वक दिया है। गृहस्थ के भाजन के विषय में टीकाकारों ने तथा पूज्य श्री जवाहरलाल जी
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