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________________ ८५ समवाय १७. wwwindineKHATRNATIONasawwarenesamanarrowsMAINTAINManandwasranARATHI ७. अचक्षु दर्शनावरण ८. अवधि दर्शनावरण ९. केवल दर्शनावरण १०. सातावेदनीय ११. यश:कीर्ति नाम १२. उच्च गोत्र १३. दानान्तराय १४. लाभान्तराय १५. भोगान्तराय १६. उपभोगान्तराय, १७. वीर्यान्तराय। इस रत्नप्रभा नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति सतरह पल्योपम की कही गई है। धूमप्रभा नामक पांचवीं नरक में नैरयिकों की उत्कृष्ट स्थिति सतरह सागरोपम कही गई है। तमः प्रभा नामक छठी नरक में नैरयिकों की जघन्य स्थिति सतरह सागरोपम कही गई है। असुरकुमार देवों में कितनेक देवों की स्थिति सतरह पल्योपम कही गई है। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति सतरह पल्योपम कही गई है। महाशुक्र नामक सातवें देवलोक में देवों की उत्कृष्ट स्थिति सतरह सागरोपम कही गई है। सहस्रार नामक आठवें देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति सतरह सागरोपम की कही गई है। सहस्रार देवलोक के अन्तर्गत सामान, सुसामान, महासामान, पद्म, महापद्म, कुमुद, महाकुमुद, नलिन, महानलिन, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शुक्र, महाशुक्र, सिंह, सिंहकान्त, सिंहवीत, भावित, इन सतरह विमानों में जो देव उत्पन्न होते हैं उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति सतरह सागरोपम की कही गई है। वे देव सतरह पखवाडों से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को सतरह हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सतरह भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ॥ १७ ॥ ... विवेचन - यहाँ संयम और असंयम के सतरह - सतरह भेद बतलाये गये हैं। प्रवचन सारोद्धार. ग्रन्थ में संयम के दूसरे प्रकार से भी सतरह भेद बतलाये गये हैं। यथा - . .. १-५. हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह रूप पांच आस्रवों से विरति। अर्थात् इनका सेवन नहीं करना। ६-१०. स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पांच इन्द्रियों को उनके विषयों की ओर जाने से रोकना अर्थात् उन्हें वश में रखना। ११-१४. क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कषायों को छोड़ना। १५-१७. मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति रूप तीन दण्डों से विरति होना अर्थात् मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति नहीं करना। सतरह प्रकार का असंयम। ऊपर जो सतरह प्रकार का असंयम बतलाया है उसके विपरीत प्रवृत्ति करना असंयम है। यथा - - १-५: हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह (ममत्व, मूर्छा) में प्रवृत्ति करना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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