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________________ ८४ समवायांग सूत्र आवीचि मरण है। २. अवधि मरण - एक बार भोग कर छोड़े हुए आयु कर्म के पुद्गलों को जब तक दुबारा भोगना शुरू नहीं करता है तब तक बीच के समय को अवधि मरण कहते हैं। ३. आत्यन्तिक मरण - आयुकर्म के जिन कर्म दलिकों को एक बार भोग कर छोड़ दिया है यदि उन्हें. फिर न भोगना पड़े तो उन दलिकों की अपेक्षा जीव का. आत्यन्तिक मरण कहलाता है। ४. वलन्मरण - संयम से गिरते हुए व्यक्ति का मरण वलन्मरण कहलाता है। ५. वशात मरण - इन्द्रियों के विषयों में फंसे हुए व्यक्ति की मृत्यु वशात मरण कहलाता है। ६. अन्तःशल्य मरण - जो व्यक्ति लज्जा या अभिमान के कारण अपने पापों की आलोचना किये बिना ही मर जाता है उसकी मृत्यु को अन्तःशल्य मरण कहते हैं। ७. तद्भव मरण - तिर्यञ्च या मनुष्य भव में आयुष्य पूरी करके फिर उसी भव की आयुष्य बांध लेने पर तथा दबारा उसी भव में उत्पन्न होकर मत्य प्राप्त करना तदभव मरण है। तदभव मरण देव गति और नरकगति में नहीं होता है। क्योंकि देव मर कर वापिस देव और नैरयिक मर कर वापिस नैरयिक नहीं होता है ८. बालमरण - त्याग पच्चक्खाण रहित प्राणियों का मरण बाल मरण कहलाता है। ९. पण्डित मरण - सर्व विरति साधुओं की मृत्यु को पण्डित मरण कहते हैं। १०. बालपण्डित मरण- देशविरति श्रावकों की मृत्यु को बालपण्डित मरण कहते हैं। ११. छद्मस्थ मरण - केवलज्ञान प्राप्त किये बिना छद्मस्थावस्था में मृत्यु हो जाना छद्मस्थ मरण है। १२. केवलीमरण - केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद मृत्यु होना। १३. वैहायस मरण (वैहानस मरण) - वृक्ष की शाखा आदि में बांध देने पर अथवा फांसी आदि से मृत्यु होना वैहायस (वैहानस) मरण है। १४. गृद्धपृष्ठ मरण - गीध आदि मांसभक्षी जीवों से अपने शरीर का भक्षण करवा कर मरना गृद्धपृष्ठ मरण है। १५. भक्तप्रत्याख्यान मरण - यावजीवन तीन या चार प्रकार के आहारों का त्याग करने के बाद जो मृत्यु होती है उसे भक्त प्रत्याख्यान या भक्तपरिज्ञा मरण कहते हैं। १६. इङ्गिनीमरण - यावजीवन चारों प्रकार के आहार का त्याग कर निश्चित स्थान में हिलने डुलने का आगार रख कर जो मृत्यु होती है उसे इङ्गिनी (इङ्गित) मरण कहते हैं। १७. पादपोपगमन मरण - संथारा करके वृक्ष के समान जिस स्थान पर जिस आसन से लेट जाय फिर उसी जगह उसी आसन से लेटे रहना और इस प्रकार मृत्यु हो जाना पादपोपगमन मरण है। इस मरण में हाथ पैर हिलाने का भी आगार नहीं होता है। सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में रहा हुआ सूक्ष्मसाम्परायिक अनगार सतरह कर्म प्रकृतियों का बन्ध करता है। यथा - १. आभिनिबोधिक ज्ञानावरण (मति ज्ञानावरण), २. श्रुत ज्ञानावरण, ३. अन ज्ञानावरण, ४. मन:पर्यव ज्ञानावरण ५. केवल ज्ञानावरण ६. चक्षु दर्शनावरण, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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