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________________ केशि-गौतमीय - केशीश्रमण की सातवीं जिज्ञासा __ भावार्थ - गौतमस्वामी कहते हैं कि महामेघ से उत्पन्न हुए जलों में उत्तम जल को ग्रहण करके मैं शरीर में रही हुई उस अग्नि को सतत-निरंतर बुझाता रहता हूँ। इस प्रकार बुझाई हुई वह अग्नि मुझे अर्थात् मेरे आत्म-गुणों को नहीं जलाती है। अग्गी य इइ के वुत्ता? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी॥५२॥ भावार्थ - केशीकुमार श्रमण गौतमस्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि वह अग्नि कौनसी कही गई है और महामेघ तथा जल कौन-सा कहा गया है? उपरोक्त प्रकार से प्रश्न करते हुए केशीकुमार श्रमण से गौतमस्वामी इस प्रकार कहने लगे। कसाया अग्गिणो वुत्ता, सुय-सील-तवो जलं। - सुयधाराभिहया संता, भिण्णा हु ण डहति मे॥५३॥ कठिन शब्दार्थ - सुयसील तवो जलं - श्रुत-शील-तप रूप जल, सुयधाराभिहया - श्रुत रूप जल धारा से अभिहत, संता - शान्त, भिण्णा - भिन्न - नष्ट हुई। - भावार्थ - क्रोध-मान-माया-लोभ ये चार कषाय रूप अग्नि कही गई है और श्रुत-शीलतप रूप जल कहा गया है। उस श्रुत रूप जल से सिंचित की जाने पर भिन्न-नष्ट हुई वह अग्नि मुझे नहीं जलाती है। विवेचन - श्री तीर्थंकर देव, महामेघ के समान हैं। जिस प्रकार मेघ से जल उत्पन्न होता है, उसी प्रकार तीर्थंकर भगवान् के मुखारविन्द से श्रुत-आगम उत्पन्न होता है। उसमें वर्णित श्रुतज्ञान, शील और तप रूप जल है। उस श्रुत-शील और तप रूप जल के छिड़कने से कषाय रूपी अग्नि शान्त हो जाती है, फिर वह आत्मगुणों को नहीं जला सकती है। केशीश्नमण की सातवीं जिज्ञासा . साह गोयम! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा! ॥५४॥ भावार्थ - हे गौतम! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। तुमने मेरा यह संशय भी दूर कर दिया है। अब मेरा एक अन्य भी संशय-प्रश्न है। हे गौतम! मुझे उसके विषय में भी कुछ कहें अर्थात् मेरे उस प्रश्न का भी समाधान कीजिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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