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________________ महावीर द्वारा यह अन्तिम उपदेश हम संसारी जीवों के लिए अमृत तुल्य हैं। इस सूत्र में धर्मकथानुयोग का ही नहीं, अपितु चारों ही अनुयोगों का सुन्दर - मधुर संगम है। यह भगवान् की वाणी का प्रतिनिधित्व करने वाला आगम है। इस आगम के सूक्त वचन इतने संक्षिप्त सारपूर्ण और गहन हैं कि वे निःसंदेह साधक जीवन को निर्वाणोन्मुख करने में गागर में सागर का काम करने वाले हैं। इसे यदि साधक जीवन की डायरी कह दिया जाय तो भी अतिश्योक्ति नहीं है। उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम भाग में बीस अध्ययनों का निरूपण किया गया था। शेष सोलह अध्ययन का निरूपण इस दूसरे भाग में किया गया है। जिनका संक्षिप्त सार इस प्रकार है - इक्कीसवां अध्ययन - समुद्रपालीय - इस अध्ययन में मुख्य रूप से तीन बातों का निरूपण किया गया। श्रावक भी आगम के गहन ज्ञाता हो सकते हैं। दूसरा जीव शुभाशुभ कर्मों के अनुसार फल प्राप्त को प्राप्त करता है तथा उत्कृष्ट रत्नत्रय की आराधना का फल सिद्धि है। ' चम्पानगरी में सिद्धान्तों का निष्णात ज्ञाता (कोविद) पालित नाम का श्रावक रहता था। जिसका व्यापार जलमार्ग से दूर देशों में था। एकदा वह व्यापार के निमित्त से पिहुण्ड नगर गया। वहाँ उसके गुणों से आकृष्ट होकर एक सेठ ने अपनी कन्या की शादी पालित श्रावक से कर दी। लम्बे काल वहाँ रहने के बाद. पालित श्रावक अपनी गर्भवती पत्नी को लेकर समुद्रमार्ग से अपने देश लौट रहा था कि जहाज में ही उनकी पत्नी ने पुत्र को जन्म दे दिया। तदनुसार उसका नाम समुद्रपाल रखा। यौवन वय प्राप्त होने पर समुद्रपाल का विवाह कर दिया गया। एक समय समुद्रपाल झरोखे में बैठे हुए थे, सहसा उनकी दृष्टि एक चोर पर पड़ी जिसे वध भूमि की ओर ले जाया जा रहा था। उसे देखकर कर्मों के शुभाशुभ फल पर आपका चिंतन चला और संवेग भाव को प्राप्त हुए। अन्तोगत्वा दीक्षा अंगीकार कर उत्कृष्ट संयम का पालन करके सिद्धिगति को प्राप्त किया। ___बाईसवां अध्ययन - रथनेमिय - इस अध्ययन में भगवान् अरिष्टनेमि के जन्मबाल्यकाल-सगाई-विवाह की तैयारी के साथ-साथ जीवों के प्रति दया-करुणा आदि का सजीव चित्रण किया गया है। बारातियों के भोज के निमित्त से बाड़े में बंद मूक पशुओं को मुक्त करा कर अविवाहित ही वापिस लौटना, दीक्षा अंगीकार करना एवं राजमती द्वारा अपने पति के मार्ग पर चलना आदि अनेक आदर्श तथ्यों का इस अध्ययन में निरूपण किया गया है। साथ ही रथनेमि के विकार युक्त मन को राजमती सती के सचोट सुभाषित वचन किस प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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