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________________ ३४ उत्तराध्ययन सूत्र - बाईसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 उपसंहार उग्गं तवं चरित्ता णं, जाया दोण्णि वि केवली। सव्वं कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं॥५०॥ · कठिन शब्दार्थ - उग्गं - उग्र, तवं - तप का, चरित्ताणं - आचरण कर, जाया - हुए, दोण्णि - दोनों, केवली - केवलज्ञानी, खवित्ताणं - क्षय करके, सिद्धिं - सिद्धि गति को, पत्ता - प्राप्त हुए, अणुत्तरं - अनुत्तर। भावार्थ - उग्र तप का सेवन करके राजीमती और रथनेमि दोनों ही केवलज्ञानी हो गये। तत्पश्चात् सभी कर्मों का क्षय करके अनुत्तर-सब से प्रधान सिद्धि गति को प्राप्त हुए। एवं करंति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा। विणियटेति भोगेसु, जहा से पुरिसुत्तमो॥५१॥ त्ति बेमि॥ कठिन शब्दार्थ - करंति - करते हैं, संबुद्धा - सम्बुद्ध, पंडिया - पण्डितजन, . पवियक्खणा - प्रविचक्षण, विणियति - निवृत्त हो जाते हैं, भोगेसु - भोगों से, जहा - . जैरो, से - वह, पुरिसुत्तमो - पुरुषों में उत्तम (पुरुषोत्तम)। भावार्थ - तत्त्वज्ञ, पाप से डरने वाले और पाप नहीं करने वाले पण्डित विचक्षण पुरुष ऐसा ही करते हैं अर्थात् भोगों से निवृत्त हो जाते हैं। जैसे वह पुरुषों में उत्तम रथनेमि भोगों से निवृत्त हो गया अर्थात् जो विवेकी होते हैं वे विषय भोगों के दोषों को जान कर रथनेमि के समान भोगों का परित्याग कर देते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - इस गाथा में रथनेमि को पुरुषोत्तम कहा है यह कैसे ? क्योंकि वे तो साध्वी राजीमती को देखकर चलित हो गये थे? इसका समाधान यह दिया गया है कि - जातिवन्त लाखीणा घोड़ा भी कभी ठोकर खा जाता है किन्तु गिर पड़ता नहीं है तब तक वह जातिवन्त लाखीणा घोड़ा ही कहलाता है। इसी प्रकार रथनेमि मन से और वचन से चलित हो गये थे किन्तु काया से चलित नहीं हुए थे। इसलिए संयम से सर्वथा पतित नहीं बने थे तथा वे जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग को और संयम को श्रेष्ठ समझते थे। इसीलिए गाथा ३८ में रथनेमि ने कहा है कि - "भुत्तभोगी तओ पच्छा जिमग्गं चरिस्सामो॥३८॥" - इस कारण से और राजीमती के वचनों से वे संयम में स्थिर हो गये थे। इसलिए शास्त्रकार ने उनको. 'पुरुषोत्तम' कहा है सो उचित ही है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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