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उत्तराध्ययन सूत्र - बाईसवाँ अध्ययन
से ध्यानस्थ बैठे हुए रथनेमि मुनि का चित्त संयम से विचलित हो गया । गुफा में प्रवेश करते. समय अन्धकार के कारण राजीमती को रथनेमि दिखाई नहीं दिया, क्योंकि बाहर से भीतर आने वाले को भीतर अन्धकार में बैठा हुआ व्यक्ति दिखाई नहीं देता है, किन्तु पीछे राजीमती ने भी उसे देखा ।
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कामविह्वल रथनेमि
भीया य सा तहिं दहुं, एगंते संजयं तयं ।
बाहाहिं काउं संगोप्पं, वेवमाणी णिसीयइ ॥ ३५ ॥
कठिन शब्दार्थ - भीया - भयभीत, दहुं- देख कर, एगंते संजयं - संयत को, बाहाहिं - भुजाओं से, काउं संगोप्पं कांपती हुई, णिसीयइ - बैठ गई ।
भावार्थ - वहाँ एकान्त स्थान में उस संयत रथनेमि को देख कर वह राजीमती अत्यन्त भयभीत हुई कि कहीं ऐसा न हो कि बलात्कार करके यह मेरा शील भंग कर दे। इसलिए दोनों भुजाओं से अपने अंगों को ढक कर अर्थात् दोनों हाथों से स्तनादि को वेष्टित करके मर्कटबन्ध से अपने अंगों को छिपाती हुई काँपती हुई बैठ गई ।.
रथनेमि द्वारा भोगयाचना
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एकान्त में, तयं उस,
अंगों को गोपन कर, वेवमाणी
अह सोऽवि रायपुत्तो, समुद्दविजयंगओ ।
भीयं पवेवियं दट्टु, इमं वक्कमुदाहरे॥३६॥
कठिन शब्दार्थ - समुद्दविजयंगओ - समुद्र विजय के अंगज, रायपुत्तो राजपुत्र,
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पवेवियं - कांपती हुई, वक्कं वचन, उदाहरे- कहे ।
भावार्थ - इसके बाद समुद्रविजय का अंगजात पुत्र वह राजपुत्र रथनेमि राजीमती को डरी
हुई और काँपती हुई देख कर इस प्रकार वचन कहने लगा । रहणेमी अहं भद्दे! सुरूवे चारुभासिणि! भयाहि सुणु, ण ते पीला भविस्सइ ॥३७॥
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