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रथनेमीय - आभषण त्याग 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 लिए यथोचित समय पर सभी प्रकार की ऋद्धि से युक्त और परिषद् सहित लोकान्तिक आदि देव मनुष्य लोक में आये।
विवेचन - दीक्षा लेने से पहले सभी तीर्थंकर वर्षीदान देते हैं। प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख सोना मोहर दान में देते हैं। इस प्रकार बारह महिने में तीन अरब अठयासी करोड़ अस्सी लाख सोना मोहर (स्वर्ण मुद्राएं) दान में देते हैं। दीक्षा लेने की भावना बारह महीने पहले हो जाती है। वर्षीदान पूर्ण हो जाने पर लोकांतिक देव अपना जीताचार पालन करने के लिए सेवा में उपस्थित होकर निवेदन करते हैं कि - "हे भगवन्! अब आप धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति कीजिए।" इस नियम के अनुसार अरिष्टनेमिकुमार सारथी को दान देकर द्वारिका पधारे। वहाँ आकर एक वर्ष तक वर्षीदान दिया। फिर लोकांतिक देव आये और कृष्ण वासुदेव ने बड़े हर्षोल्लास और ठाठ बाठ के साथ अरिष्टनेमिकुमार का महाभिनिष्क्रमण दीक्षा महोत्सव किया और अरिष्टनेमिकुमार ने दीक्षा अंगीकार की।
देवमणुस्स-परिवुडो, सिवियारयणं तओ. समारूढो। णिक्खमिय बारगाओ, रेवययम्मि ठिओ भयवं॥२२॥ ___ कठिन शब्दार्थ - देवमणुस्स परिवुडो - देवों और मनुष्यों से परिवृत्त, सिवियारयणं - शिविका रत्न (श्रेष्ठ पालकी) पर, णिक्खमिय - निकल कर, बारगाओ - द्वारिका नगरी से, रेवययम्मि - रैवतक पर्वत पर, ठिओ - स्थित हुए।
... भावार्थ - इसके बाद देव और मनुष्यों से घिरे हुए भगवान् शिविकारत्न - देवनिर्मित उत्तम पालकी पर आरूढ़ हो कर द्वारिकापुरी से निकल कर रैवतक पर्वत पर पधारे। ____ उजाणं संपत्तो, ओइण्णो उत्तमाओ सीयाओ। . साहस्सीए परिवुडो, अह णिक्खमइ उ चित्ताहि॥२३॥
कठिन शब्दार्थ - उज्जाणं - उद्यान में, संपत्तो - पहुंच कर, ओइण्णो - उतरे, उत्तमाओ सीयाओ - उत्तम शिविका से, साहस्सीए - एक हजार व्यक्तिओं से, परिवुडोपरिवृत्त होकर, णिक्खमइ - श्रमण वृत्ति ग्रहण की।
'भावार्थ - इसके पश्चात् वे सहस्राम्र वन नामक उद्यान में पधारे और उस उत्तम शिविका से नीचे उतरे तत्पश्चात् चित्रा नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ योग मिलने पर एक हजार पुरुषों से परिवृत्त हो कर दीक्षा अंगीकार की। भगवान् के साथ ही एक हजार पुरुषों ने भी दीक्षा ली।
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