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जीवाजीव विभक्ति - कल्पातीत के भेद
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लोगस्स एगदेसम्मि, ते सव्वे वि वियाहिया। इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वुच्छं चउव्विहं ॥२२०॥
भावार्थ - वे सभी. देव, लोक के एक देश में कहे गये हैं। अब इसके आगे उनका चार प्रकार का काल-विभाग कहूँगा।
संतई पप्पणाइया, अपज्जवसिया वि य। ठिई पडुच्च साइया, सपज्जवसिया वि य॥२२१॥
भावार्थ - संतति-प्रवाह की अपेक्षा ये सब अनादि और अपर्यवसित - अनन्त भी हैं और स्थिति की अपेक्षा सादि और सपर्यवसित - सान्त भी हैं।
साहियं सागरं इक्कं, उक्कोसेण ठिई भवे। भोमेज्जाणं जहण्णेणं, दसवाससहस्सिया॥२२२॥
कठिन शब्दार्थ - साहियं - साधिक - कुछ अधिक, भोमेज्जाणं - भवनपति देवों की, दसवाससहस्सिया - दस हजार वर्ष।...
भावार्थ - भौमेयक - भवनपति देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक सागरोपम से साधिक - कुछ अधिक होती है।
विवेचन - इस माथा में सामान्य रूप से स्थिति कह दी गई है किन्तु दक्षिणार्द्ध के अधिपति चमर नामक असुरेन्द्र की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की तथा उत्तरार्द्ध के अधिपति बलि नामक असुरेन्द्र की स्थिति एक सागरोपम से कुछ अधिक है। यहां जो जघन्य स्थिति १०००० वर्ष की कही है वह भवनपति जाति के किल्विषी देवों की समझनी चाहिये। किल्विषी देव चारों जाति के देवों में हैं। देवों में ये सबसे हल्की जाति के देव हैं।
पलिओवम दो ऊणा, उक्कोसेण वियाहिया।
असुरिंदवज्जेत्ताणं, जहण्णा दस सहस्सगा॥२२३॥ . कठिन शब्दार्थ - पलिओवम दो ऊणा - देश ऊणा दो पल्योपम, असुरिंदवज्जेत्ताणंअसुरकुमारों के इन्द्रों को छोड़ कर।
'भावार्थ - असुरकुमारों के इन्द्रों को छोड़ कर शेष भवनपति देवों की जघन्य आयु दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट देश ऊणा दो पल्योपम की कही गई है।
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