________________
रथनेमीय - अरिष्टनेमि का परिचय
१७
अहाह जणओ तीसे, वासुदेवं महिड्डियं। इहागच्छउ कुमारो, जा से कण्णं ददामिऽहं॥८॥
कठिन शब्दार्थ - जणओ - जनक, महिड्डियं - महा ऋद्धि वाले, इह - यहां, आगच्छउ - पधारे, कण्णं - कन्या को, ददामि - दे सकता हूं।
भावार्थ - इसके बाद उस राजीमती के जनक-पिता राजा उग्रसेन ने महाऋद्धि वाले कृष्ण-वासुदेव से कहा कि यदि अरिष्टनेमि कुमार यहां पधारें तो मैं उन्हें अपनी कन्या + अर्थात् यदि आप अरिष्टनेमि कुमार को दुल्हा बनाकर और बारात सजा कर यहाँ पधारें तो मैं अपनी कन्या राजीमती का उनके साथ विधिपूर्वक विवाह कर सकता हूँ। ' विवेचन - प्राचीन काल में राजा लोगों की यह परिपाटी रही हुई थी कि वे बारात बना कर और दुल्हे को सजा कर लड़की के घर नहीं जाते थे। किन्तु लड़की वाले अपनी-अपनी लड़कियों को लेकर वर राजा के घर पहुँच जाते थे और सब लड़कियों का पाणिग्रहण (विवाह) एक ही दिन कर दिया जाता था। परन्तु अपने छोटे भाई अरिष्टनेमि का राजीमती के साथ सम्बन्ध करने के लिए वासुदेव श्री कृष्ण स्वयं श्री उग्रसेन जी के यहाँ पहुँचे थे और राजीमती की मांगणी की थी। तब उग्रसेनजी ने यह शर्त रखी कि - आप अरिष्टनेमि को दुल्हा बना कर और बारात सजा कर मेरे यहाँ पधारें तो मैं राजीमती को दे सकता हूँ। तब वासुदेव श्री कृष्ण ने उनकी शर्त को स्वीकार किया है।
उस समय श्री कृष्ण तीन खण्ड के स्वामी वासुदेव बन चुके थे। राजा उग्रसेन उनका मातहत (अधीनस्थ) राजा था। यदि वे चाहते तो उग्रसेनजी को आज्ञा दे सकते थे कि - तुम्हारी लड़की राजीमती को यहाँ लाकर मेरे छोटे भाई अरिष्टनेमि के साथ उसका विवाह कर दो। किन्तु श्री कृष्ण ने आज्ञा नहीं दी। बल्कि स्वयं चलकर राजा उग्रसेन के यहाँ पहुँचे और उनकी शर्त स्वीकार की। यह उनकी महानता थी। महापुरुषों के लिये शास्त्र में विशेषण आते हैं "सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे" अर्थात् वे प्रजा के हित के लिए मर्यादा बांधते हैं और उस मर्यादा का पालन स्वयं भी करते हैं। प्रजा में क्षेमकुशलता बरताते हैं और आप स्वयं भी किसी प्रकार का उपद्रव नहीं करते हुए कुशलता बरताते हैं।
सव्वोसहीहिं ण्हविओ, कयकोउयमंगलो। दिव्वजुयल-परिहिओ, आभरणेहिं विभूसिओ॥६॥
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org