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________________ ३६० उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - इन नरक जीवों के वर्ण से, गन्ध से, रस से, स्पर्श से और संस्थान की अपेक्षा से भी सहस्रश - हजारों भेद हो जाते हैं। तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों का स्वरूप पंचिंदियतिरिक्खाओ, दुविहा ते वियाहिया। सम्मुच्छिम-तिरिक्खाओ, गब्भवक्कंतिया तहा॥१७३॥ कठिन शब्दार्थ - पंचिंदियतिरिक्खाओ - पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सम्मुच्छिम-तिरिक्खाओसम्मूर्छिम तिर्यंच, गब्भवक्कंतिया - गर्भव्युत्क्रान्तिक। भावार्थ - जो पंचेन्द्रिय तिर्यंच हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं - सम्मूर्छिम तिर्यंच और गर्भव्युत्क्रान्तिक (गर्भज) तिर्यंच। दुविहा ते भवे तिविहा, जलयरा थलयरा तहा। णहयरा य बोधव्वा, तेसिं भेए सुणेह मे॥१७४॥ कठिन शब्दार्थ - जलयरा - जलचर, थलयरा - स्थलचर, णहयरा - नभचर।. भावार्थ - दो प्रकार के उन तिर्यंचों के भी प्रत्येक के तीन-तीन भेद जानने चाहिये। यथा - जलचर, स्थलचर और नभचर (खेचर)। अब उनके भेदों को मुझ से सुनो। जलचर वर्णन मच्छा य कच्छभा य, गाहा य मगरा तहा। सुंसुमारा य बोधव्वा, पंचहा जलयराहिया॥१७५॥ कठिन शब्दार्थ - मच्छा - मच्छ, कच्छभा - कच्छप, गाहा - ग्राह, मगरा - मकर, सुंसुमारा - सुंसुमार, जलयरा - जलचर, आहिया - कहे गये हैं। भावार्थ - जलचर जीव, पांच प्रकार के कहे गये हैं, वे इस प्रकार जानने चाहिए। यथा - मच्छ, कच्छप (कच्छुआ), ग्राह, मकर और सुंसुमार। . लोएगदेसे ते सव्वे, ण सव्वत्थ वियाहिया। इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वुच्छं चउव्विहं॥१७६॥ 'भावार्थ - वे सभी जलचर जीव लोक के एक देश में कहे गये हैं, वे सर्वत्र नहीं हैं। अब आगे उन जीवों के चार प्रकार के कालविभाग को कहूँगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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