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________________ ३८० उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहण्णयं। विजढम्मि सए काए, वाऊजीवाण अंतरं॥१२५॥ भावार्थ - अपनी काया छोड़ने पर वायुकाय के जीवों का उत्कृष्ट अन्तर - अनन्त काल का है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त का है। एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रस-फासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो॥१२६॥ भावार्थ - इन वायुकाय के वर्ण से, गंध से, रस से, स्पर्श से और संस्थान की अपेक्षा से भी सहस्रश-हजारों विधान-भेद हो जाते हैं। उदार वसकाय का स्वरूप उराला य तसा जे उ, चउहा ते पकित्तिया। बेइंदिया तेइंदिया, चउरो पंचिंदिया चेव॥१२७॥ कठिन शब्दार्थ - उराला - उदार, तसा - वस। भावार्थ - जो उदार - प्रधान त्रस हैं, वे चार प्रकार के कहे गये हैं। यथा - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। बेइन्द्रिय त्रस का स्वरूप बेइंदिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया। पज्जत्तमपज्जत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे॥१२८॥ भावार्थ - जो बेइन्द्रिय जीव हैं वे दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - पर्याप्त और अपर्याप्त। अब उनके भेद मुझ से सुनो। . किमिणो सोमंगला चेव, अलसा माइवाहया। वासीमुहा य सिप्पीया, संखा संखणगा तहा॥१२६॥ पल्लोयाणुल्लया चेव, तहेव य वराडगा। जलूगा जालगा चेव, चंदणा य तहेव य॥१३०॥ इइ बेइंदिया एए, णेगहा एवमायओ। लोगेगदेसे ते सव्वे, ण सव्वत्थ वियाहिया॥१३१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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