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उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहण्णयं। विजढम्मि सए काए, वाऊजीवाण अंतरं॥१२५॥
भावार्थ - अपनी काया छोड़ने पर वायुकाय के जीवों का उत्कृष्ट अन्तर - अनन्त काल का है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त का है।
एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रस-फासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो॥१२६॥
भावार्थ - इन वायुकाय के वर्ण से, गंध से, रस से, स्पर्श से और संस्थान की अपेक्षा से भी सहस्रश-हजारों विधान-भेद हो जाते हैं।
उदार वसकाय का स्वरूप उराला य तसा जे उ, चउहा ते पकित्तिया। बेइंदिया तेइंदिया, चउरो पंचिंदिया चेव॥१२७॥ कठिन शब्दार्थ - उराला - उदार, तसा - वस।
भावार्थ - जो उदार - प्रधान त्रस हैं, वे चार प्रकार के कहे गये हैं। यथा - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय।
बेइन्द्रिय त्रस का स्वरूप बेइंदिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया। पज्जत्तमपज्जत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे॥१२८॥
भावार्थ - जो बेइन्द्रिय जीव हैं वे दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - पर्याप्त और अपर्याप्त। अब उनके भेद मुझ से सुनो। .
किमिणो सोमंगला चेव, अलसा माइवाहया। वासीमुहा य सिप्पीया, संखा संखणगा तहा॥१२६॥ पल्लोयाणुल्लया चेव, तहेव य वराडगा। जलूगा जालगा चेव, चंदणा य तहेव य॥१३०॥ इइ बेइंदिया एए, णेगहा एवमायओ। लोगेगदेसे ते सव्वे, ण सव्वत्थ वियाहिया॥१३१॥
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