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उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 . विवेचन - वर्ण के १००, गन्ध के ४६, रस के १००, स्पर्श के १३६ और संस्थान के १००, कुल मिलाकर ४८२ भेद होते हैं। किन्तु पन्नवणा सूत्र की वृत्ति में ५३० भेद बतलाये हैं। वहाँ पर प्रत्येक स्पर्श के २३ भेद माने गये हैं, तब आठ स्पर्शों के १८४ भेद होते हैं। इस प्रकार ५३० भेद बन जाते हैं।
एसा अजीव-विभत्ती, समासेण वियाहिया।
इत्तो जीवविभत्तिं, वुच्छामि अणुपुव्वसो॥४॥ • कठिन शब्दार्थ - एसा - यह, अजीव-विभत्ती - अजीव विभक्ति, समासेण - संक्षेप से, जीवविभत्तिं - जीव विभक्ति को, वुच्छामि - कहूंगा, अणुपुव्वसो - अमुक्रम से।
भावार्थ - यह अजीव-विभक्ति (विभाग) संक्षेप से कहा गया है, इसके आगे अनुपूर्वक्रमपूर्वक जीव विभक्ति (जीव द्रव्य का विभाग) कहूँगा।
‘जीव का स्वरूप संसारत्था य सिद्धा य, दुविहा जीवा वियाहिया। सिद्धा णेगविहा वुत्ता, तं मे कित्तयओ सुण॥४६॥
कठिन शब्दार्थ - संसारत्था - संसारस्थ - संसारी, सिद्धा - सिद्ध, अणेगविहा - अनेक प्रकार के, वुत्ता - कहे गये हैं, तं - उनका, कित्तयओ - कीर्तन - वर्णन करता हूं, सुण - सुनो। - भावार्थ - जीव दो प्रकार के कहे गये हैं, संसारस्थ - संसारी और सिद्ध। सिद्ध अनेक प्रकार के कहे गये हैं। उनका कीर्तन - वर्णन किया जाता है, अतः तुम मुझ से सुनो।
विवेचन - जीव के दो भेद हैं - १. संसारस्थ - संसारी और २. सिद्ध। जो चतुर्गति रूप या कर्मों के कारण जन्म-मरण रूप संसार में स्थित हैं, वे संसारी कहलाते हैं। जो जन्म-मरण से रहित होते हैं, जिनमें कर्म बीज (राग-द्वेष) और कर्म फलस्वरूप चार गति, शरीर आदि नहीं होते जो सभी दुःखों से रहित होकर सिद्धि गति में विराजमान होते हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं।
सिद्ध जीवों का स्वरूप इत्थी-पुरिस-सिद्धा य, तहेव य णपुंसगा। सलिंगे अण्णलिंगे य, गिहिलिंगे तहेव य॥५०॥
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