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रहणेमिज्जं णामं बावीसइमं अज्ायणं
स्थनेमीय नामक बाईसवाँ अध्ययन.
उत्थानिका - रथनेमी का प्रसंग ही मुख्य होने के कारण प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'रथनेमीय' प्रसिद्ध हुआ है। अध्ययन के प्रारंभ में अरिष्टनेमि के विवाह का रोचक प्रसंग है
और फिर करुणाजनित संवेग से प्रेरित करुणावतार अरिष्टनेमि मूक जीवों की हिंसा में स्वयं को निमित्त न बनने देने का दृढ़ संकल्प लेकर विवाह मण्डप से अविवाहित ही लौट जाते हैं और दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। 'जीवदया' के प्रसंग में यह घटना इतिहास का प्रकाश स्तंभ है। जीवरक्षा के लिए मानव को अपनी सुखसुविधाओं का बलिदान कर देना चाहिये-यह महान् प्रेरणा इस अध्ययन से स्फुरित होती है। . . इसके पश्चात् राजीमती द्वारा तीव्र वैराग्यभाव पूर्वक दीक्षा ग्रहण करना, रथनेमि द्वारा राजीमती से भोगयाचना, राजीमती द्वारा रथनेमि को प्रेरणात्मक बोध, रथनेमि का पुनः संयम में दृढ़ होना और अंत में दोनों के मोक्ष गमन का वर्णन किया गया है।
भगवान् अरिष्टनेमि की करुणाशीलता, राजीमती का सच्चा अनुराग और प्रतिबोध कुशलता तथा रथनेमि का पुनः जागृत होने का विवेक इस अध्ययन की विशेषताएं हैं। इसकी प्रथम गाथा
इस प्रकार है -
बलदेव कृष्ण का परिचय सोरियपुरम्मि णयरे, आसी राया महिहिए। वसुदेवत्ति णामेणं, रायलक्खण-संजुए॥१॥
कठिन शब्दार्थ - सोरियपुरम्मि णयरे - शौर्यपुर नगर में, महिड्दिए - महर्द्धिक, रायलक्खणसंजुए - राज लक्षणों से युक्त। .. भावार्थ - शौर्यपुर नामक नगर में चक्र, स्वस्तिक, अंकुश आदि लक्षणों से तथा सत्य, शूरवीरता आदि राजा के गुणों से युक्त तथा महाऋद्धि वाले वसुदेव नाम के राजा थे।
विवेचन - भगवान् अरिष्टनेमि व राजीमती यदुवंश में उत्पन्न हुए थे। प्राचीन ग्रंथों (दशवैकालिक नियुक्ति अ० २ गाथा ८ आदि) में यदुवंश का विस्तार इस प्रकार बताया है -
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