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जीवाजीव विभक्ति - अरूपी अजीव निरूपण 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
अरूपी अजीव निरूपण धम्मत्थिकाए तईसे, तप्पएसे य आहिए। अहम्मे तस्स देसे य, तप्पएसे य आहिए॥५॥ आगासे तस्स देसे य, तप्पएसे य आहिए। अद्धासमए चेव, अरूवी दसहा भवे॥६॥
कठिन शब्दार्थ - धम्मत्थिकाए - धर्मास्तिकाय, तद्देसे - उसका देश, तप्पएसे - उसका प्रदेश, आहिए - कहा गया है, अहम्मे - अधर्मास्तिकाय, आगासे - आकाशास्तिकाय, अद्धासमए - अद्धासमय-काल।
भावार्थ - धर्मास्तिकाय का स्कन्ध, उसका देश और उसका प्रदेश (ये तीन भेद धर्मास्तिकाय के) कहे गये हैं। अधर्मास्तिकाय का स्कन्ध, उसका देश और उसका प्रदेश (ये तीन भेद अधर्मास्तिकाय के) कहे गये हैं। आकाशास्तिकाय का स्कन्ध, उसका देश और उसका प्रदेश (ये तीन भेद आकाशास्तिकाय के) कहे गये हैं और अद्धा समय-काल, इस प्रकार अरूपी के दस भेद होते हैं।
विवेचन - १: पुद्गल और जीवों की गति में सहायक हो, उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं। जैसे मछली की गति करने में पानी सहायक होता है और रेलगाड़ी के चलने में पटरी सहायक होती है। इसी तरह जीव और पुद्गल दोनों धर्मास्तिकाय के (सहायता) आधार से चलते हैं। - २. जो जीव और पुद्गलों को ठहरने में सहायक हो, उसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं। जैसे - थके हुए मुसाफिर को छाया सहायक होती है।
३. जो जीव और पुद्गलों को स्थान देता है, उसे आकाशास्तिकाय कहते हैं। जैसे आकाश में विकास, भीत में खूटी, दूध में पताशा का दृष्टान्त।
४. जो जीव और पुद्गलों में नवीन-नवीन पर्यायों की प्राप्ति रूप परिणमन करता है, उसे काल द्रव्य कहते हैं। नये को पुराना करना और पुराने को नष्ट करना, यह काल का गुण है।
५. जिसमें ज्ञान, दर्शन रूप उपयोग हो, उसे जीव द्रव्य कहते हैं। 'जीवो उवओग लक्षणों' 'उपयोगः जीवस्य लक्षणम्'।
६. जिसमें वर्ण (रूप), रस, गंध और स्पर्श पाये जाते हों, उसे पुद्गल द्रव्य कहते हैं।
ये छह द्रव्य शाश्वत हैं। अनादि अनन्त हैं। इनमें से पांच अजीव हैं और एक जीव है। जीव द्रव्य का लक्षण चेतना है, वह उपादेय है। बाकी के पांचों अजीव द्रव्य हेय-छोड़ने योग्य हैं।
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