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________________ अनगार मार्गगति - निवास-स्थान विवेक ३३५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 वाले तादृश-उपरोक्त प्रकार के उपाश्रय में साधु के लिए इन्द्रियों को निवारण करना अर्थात् रोकना बड़ा कठिन है। विवेचन - मनोहर चित्रों से सुशोभित, पुष्प और अगरचन्दनादि सुगन्धित पदार्थों से सुवासित, सुन्दर श्वेत वस्त्रों तथा चन्दवों द्वारा सुसज्जित स्थान में साधु न रहे, क्योंकि उपरोक्त प्रकार से सुसज्जित मकान में साधु को अपना इन्द्रिय-संयम रखना कठिन हो जाता है, क्योंकि उपरोक्त प्रकार का स्थान काम-राग को बढ़ाने वाला होता है। इसलिए साधु को ऐसे घर में न रहना चाहिए। कामराग की वृद्धि का कारण होने से ऐसे स्थान में रहने का साधु के लिए निषेध किया गया है, किन्तु किंवाड़ खोलने और बंद करने का निषेध नहीं किया गया है। . बृहत्कल्प सूत्र के पहले और दूसरे उद्देशक में बतलाया गया है कि - कपाट सहित मकान न मिलने पर साधु तो खुले मकान में अथवा खुली जगह में भी रात्रि निवास कर सकता है। किन्तु साध्वियों को तो कपाट सहित बंद मकान में ही ठहरना चाहिये। बंद मकान में ठहरने पर रात्रि में लघुनीत आदि परठने के लिए किंवाड़ खोलने और बंद करने ही पड़ते हैं इसलिए किसी एक जैन सम्प्रदाय विशेष का यह कहना कि - 'जैन साधु साध्वियों को किंवाड़ खोलना और बंद करना नहीं कल्पता है' यह कहना आगम विरुद्ध है तथा इस गाथा में किंवाड़ सहित मकान में उतरने का और किंवाड़ को खोलने और बंद करने का निषेध नहीं किया गया है। सुसाणे सुण्णगारे वा, रुक्खमूले व इक्कओ। पइरिक्के परकडे वा, वासं तत्थाभिरोयए॥६॥ कठिन शब्दार्थ - सुसाणे - श्मशान में, सुण्णगारे - सूने (निर्जन) घर में, रुक्खमूलेवृक्ष के मूल में, इक्कओ - एकाकी होकर, पइरिक्के - प्रतिरिक्त-एकान्त या खाली, परकडे - परकृत, वासं - निवास करने की, अभिरोयए - इच्छा करे। भावार्थ - श्मशान में अथग सूने घर में अथवा वृक्ष के नीचे अथवा परकृत (गृहस्थ ने जो अपने निज के लिए बनाया है) ऐसे प्रतिरिक्त - स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित एकान्त स्थान में एकाकी - राग-द्वेष रहित हो कर साधु रहने की इच्छा करे अर्थात् रहे। फासुयम्मि अणावाहे, इत्थीहि अणभिहुए। तत्थ संकप्पए वासं, भिक्खू परमसंजए॥७॥ कठिन शब्दार्थ - फासुयम्मि - प्रासुक, अणावाहे - बाधा रहित, इत्थीहिं - स्त्रियों के, अणभिहुए - अनभिद्रुत - उपद्रव से रहित, संकप्पए - संकल्प करे, परमसंजए - परम संयत। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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