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अनगार मार्गगति - सर्व संग परित्याग 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 लालसा बनी रहे कि - 'अमुक गांव में, अमुक नगर में, अमुक शहर में मेरी मान्यता के इतने घर हैं' तो एक कवि ने कहा है -
घर एक को छोड़ कर, घर घेरे चहुँ ओर। उठ्यो थो हरि भजन को, कीधी नरक में ठोर॥
गृहस्थ में तो अपने एक घर की ही चिन्ता थी, मुनि बनने के बाद अनेक घरों की चिन्ता मोल ले ली। अनेक घरों पर ममता और मूर्छा होना महापरिग्रह है। महापरिग्रह नरक का कारण है। मुनि को इस प्रकार चिन्ता नहीं करनी चाहिए। ____ठाणाङ्ग सूत्र के दूसरे ठाणे में दो प्रकार का धर्म कहा है - 'अगार धम्मे चेव अणगार धम्मे चेव।' अगार अर्थात् घर में रहते हुए श्रावक व्रतों का पालन करना अगार धर्म है। कुछ लोग इसे 'आगार' धर्म कह देते हैं वह आगमानुकूल नहीं है इसलिए ‘अगार धर्म' ही कहना चाहिए तब ही अनगार शब्द शुद्ध बन सकता है। जिन्होंने द्रव्य अगार और भाव अगार दोनों का त्याग कर दिया है वे अनगार कहलाते हैं। अर्थात् पांच महाव्रत, पांच समिति तीन गुप्ति रूप तेरह प्रकार के चारित्र का पालन करने वाले मुनि महात्मा ‘अनगार' कहलाते हैं।
सर्व संग परित्याग . गिहवासं परिच्चज, पव्वजामस्सिए मुणी। इमे संगे वियाणिज्जा, जेहिं सजंति माणवा॥२॥
कठिन शब्दार्थ. - गिहवासं - गृहवास का, परिच्चज्ज - परित्याग करके, पव्वज्जामस्सिए - प्रव्रज्या के आश्रित हुआ, इमे - इन, संगे - संगों को, वियाणिज्जा - जानकर, सज्जंति - आसक्त होते हैं, माणवा - मनुष्य।
भावार्थ - गृहस्थवास का त्याग कर के प्रव्रज्या का आश्रित - आश्रय लेने वाला मुनि इन माता-पिता, पुत्र-कलत्र (स्त्री) आदि के संगों की, जिनसे मनुष्य आसक्तियों में फंस कर कर्म-बन्धन को प्राप्त होते हैं उन्हें जान कर छोड़ देवे। .
विवेचन - मूल में 'गिहवास' शब्द दिया है जिसकी संस्कृत छाया 'गृहवास' करके अर्थ ऊपर दिया है। किन्तु टीकाकार ने 'गिहवास' की संस्कृत छाया 'गृहपाश' भी की है। पाश का अर्थ है - जाल, बन्धन। जाल या बंधन में पड़ा हुआ व्यक्ति परवश हो जाता है, इसी प्रकार गृहस्थावास में रहा हुआ जीव भी परवश हो जाता है। इसलिए गृहस्थ अवस्था को 'पाश' कहा गया है।
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