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उत्तराध्ययन सूत्र - तेतीसवाँ अध्ययन 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जिन्होंने ग्रंथिभेद नहीं किया है उन अभव्य जीवों से, अंतो - अन्तवर्ती - अनंतवें भाग जितने, सिद्धाण - सिद्धों के।
भावार्थ - एक समय में तथा अनेक समयों में बंधने वाले ज्ञानावरणीय आदि सभी कर्मों के प्रदेशाग्र (परमाणु) अनन्त हैं, वे अभव्य जीवों की अपेक्षा अनन्तगुणा अधिक हैं और सिद्ध भगवान् का अनन्तवाँ भाग कहे गये हैं अर्थात् वे सिद्ध भगवान् से अनन्तगुण कम हैं।
विवेचन - इस गाथा में यह बतलाया गया है कि ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्मों के प्रदेशाग्र अर्थात् परमाणु-कर्म दलिक अनन्त हैं।
प्रश्न - अनन्त के अनन्त भेद हैं यहाँ पर कौनसा अनन्त समझना चाहिए? ..
उत्तर - शास्त्रकार इसी गाथा में उत्तर फरमाते हैं कि 'गंठियसत्ताइयं - ग्रन्थिकसत्वातीत इसका अर्थ यह है कि - रागद्वेष अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ के वशीभूत बना हुआ यह जीव संसार में परिभ्रमण करता हुआ दुःख उठा रहा है। प्रत्येक कषाय की चार चौकड़ी है अर्थात् अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन। अनन्तानुबंधी चौकड़ी समकित को रोकती है, अप्रत्याख्यानी चौकड़ी सर्वज्ञ कथित किसी भी प्रकार के प्रत्याख्यान को नहीं आने देती है। ___ प्रत्याख्यानावरण चौकड़ी सर्व विरति रूप श्रमणता (साधुता) अर्थात् मुनिपने को रोकती है और संज्वलन चौकड़ी वीतरागता को रोकती है। इन चारों चौकड़ियों में अनन्तानुबंधी चौकड़ी को समाप्त करना सबसे बड़ा कठिन है। इसका उपशम, क्षय या क्षयोपशम हुए बिना सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती है। यह सब से बड़ी गांठ है इसलिए शास्त्रकार ने शब्द दिया है - ग्रन्थि (गांठ)। यह गांठ (अनन्तानुबंधी चौकड़ी) जिन जीवों के कभी समाप्त नहीं होती किन्तु हमेशा सत्ता में बनी रहती है ऐसे जीव अभव्य जीव होते हैं। अभव्य (अभवी-अभव सिद्धिक) जीव अनन्त हैं। कितने अनन्त हैं? इसकी स्पष्टता करते हुए पनवणा सूत्र के तीसरे पद में महादण्डक में अर्थात् ६८ बोल के अल्पबहुत्व में बतलाया गया है कि अभवी जीवों की संख्या ७४ वें बोल में आती है, वे अनन्त हैं। इसके आगे ७६ वें बोल में सिद्ध भगवंतों की संख्या अनन्त बतलाई गयी है। यहाँ पर इस गाथा में बतलाया गया है कि ग्रन्थि सत्ता वाले अभवी जीवों से अतीत अर्थात् अभवी जीवों की संख्या का उल्लंघन कर के और सिद्ध भगवन्तों के अनन्तवें भाग जितने सब कर्मों के प्रदेशाग्र (परमाणु-कर्मदलिक) होते हैं।
सव्व-जीवाण कम्मं तु, संगहे छद्दिसागयं। सव्वेसु वि पएसेसु, सव्वं सव्वेण बद्धगं॥१८॥
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