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उत्तराध्ययन सूत्र - बत्तीसवाँ अध्ययन
रागी के लिए दुःख के हेतु
विंदियत्थाय मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो । ते चेव थोवं वि कयाइ दुक्खं, ण वीयरागस्स करेंति किंचि ॥ १०० ॥ कठिन शब्दार्थ - एवं - इस प्रकार, इंदियत्था - इन्द्रियों के विषय, मणस्स अत्था मन के विषय, दुक्खस्स हेउं - दुःख के हेतु, रागिणो - रागी, थोवं - थोड़े, वीयरागस्स वीतरागी के ।
भावार्थ
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इस प्रकार इन्द्रियों के विषय और मन के विषय ( मानसिक संकल्प विकल्प ) रागी मनुष्य के लिए दुःख के हेतु कारण होते हैं किन्तु वे ही इन्द्रिय और मन के विषय वीतराग पुरुष के लिए थोड़ा-सा किचिमात्र भी कभी दुःख के कारण नहीं होते ।
ण कामभोगा समयं उवेंति, ण यावि भोगा विगई उवेंति ।
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जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवे ॥ १०१ ॥
कठिन शब्दार्थ - समयं समता को, विगई उनके प्रति प्रद्वेष, परिग्गही - परिग्रही ।
भावार्थ - कामभोग स्वतः न तो समता को प्राप्त कराते हैं और न कामभोग विकृतिविकार-भाव को प्राप्त कराते हैं किन्तु जो परिग्रही - मनोज्ञ विषयों को ग्रहण करता है (उन पर राग करता है) और तत्प्रद्वेषी - अमनोज्ञ विषयों पर द्वेष करता है, वह उनमें मोह से विकृति - विकार भाव को प्राप्त होता है।
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कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं दुगुच्छं अरई रई च ।
वइस्से ||१०३ ॥
हासं भयं सोग - पुमित्थिवेयं, णपुंसवेयं विविहे य भावे ॥ १०२ ॥ आवज्जइ एवमणेगरूवे, एवंविहे कामगुणेसु सत्तो । अणे य एयप्पभवे विसेसे, कारुण्ण-दीणे हिरिमे कठिन शब्दार्थ - दुगुच्छं जुगुप्सा, अरई- अरति, रई रति, हासं हास्य, भयंभय, सोग - शोक, पुमित्थिवेयं - पुरुषवेद-स्त्रीवेद, णपुंसवेयं नपुंसकवेद, विविहभावे विविधभावों को, आवज्जइ प्राप्त होता है, अणेगरूवे - अनेक रूपों को, अण्णे एयप्पभवेअन्य इनसे उत्पन्न होने वाले, विसेसे- विशेष, कारुण्णदीणे - करुणास्पद दीन, हिरिमे - लज्जालु, वइस्से - द्वेष का पात्र ।
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विकृति को, तप्पओसी - तत्प्रद्वेषी
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