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________________ प्रमादस्थान - मनोभावों के प्रति राग-द्वेष से मुक्त होने का उपाय २६३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - भावाणुरत्तस्स - भावानुरक्त-भाव में आसक्त। __भावार्थ - इस प्रकार भावानुरक्त - भाव में आसक्त बने हुए मनुष्य को सुख कहां प्राप्त हो सकता है? अर्थात् उसे कभी भी किचिंन्मात्र सुख प्राप्त नहीं हो सकता। अपने भावानुकूल जिस वस्तु को प्राप्त करने के लिए जीव ने दुःख-अपार कष्ट उठाया था, उस वस्तु के उपभोग में भी वह अत्यन्त क्लेश और दुःख पाता है। एमेव भावम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोह-परंपराओ। पदुट्ट चित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥८॥ भावार्थ - इसी प्रकार अमनोज्ञ भाव में प्रद्वेष को प्राप्त हुआ जीव दुःखौघपरम्पराउत्तरोत्तर दुःख-समूह की परम्परा को प्राप्त होता है और अतिशय द्वेष युक्त चित्त वाला जीव अशुभ कर्म चय करता है अर्थात् बांधता है, जिससे उसे फिर विपाक-कर्म भोगने के समय दुःख होता है। भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोह-परंपरेण। ण लिप्पइ भवमझे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणी पलासं॥६६॥ भावार्थ - जिस प्रकार पुष्करिणी पलाश - जल में उत्पन्न हुए कमल का पत्ता जल में रहता हुआ भी जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार भाव में विरक्त मनुष्य विशोक - शोक रहित होता है और संसार में रहता हुआ भी इस भाव विषयक दुःखौघपरम्परा - उत्तरोत्तर दुःखसमूह की परम्परा से लिप्त नहीं होता ॥६६॥ विवेचन - प्रस्तुत गाथाओं (क्रं. ८७ से 8 तक) में मनोज्ञ-अमनोज्ञ भावों में रागद्वेष मुक्ति की प्रेरणा दी गई है। ____कोई मतवाला हाथी किसी हस्तिनी को देखता है तो वह कामासक्ति भाव के वशीभूत होकर अपने मार्ग को छोड़कर उसके पीछे लग जाता है। उस मार्ग भ्रष्ट हाथी को शिकारी लोग गड्ढे में रखी कागज की हथिनी से आकृष्ट करके उस गड्ढे में डाल देते हैं, फिर उसे पकड़ लेते हैं अथवा मार देते हैं। इसी प्रकार मनोज्ञ भावों में आसक्त मनुष्य को अंकाल में ही मृत्यु का ग्रास बनना . पड़ता है। हाथी, हथिनी को केवल देख कर उसकी ओर आकृष्ट नहीं होता किंतु मन में उठे हुए कामभाव को उसके साथ जोड़ता है तभी वह उसकी ओर दौड़ता है। इस प्रकार भावों के प्रति राग और द्वेष दुःखदायी हैं। जो राग-द्वेष से विमुक्त होता है, वही वीतराग कहलाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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