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प्रमादस्थान - स्पर्श के प्रति राग-द्वेष से मुक्त होने का उपाय
२८६ comooooooooooooooooooo000000000000000000000000000 उपयोग करने में और उसका विनाश हो जाने पर तथा वियोग हो जाने पर कैसे सुख प्राप्त हो सकता है? अर्थात् सुख प्राप्त नहीं हो सकता, प्रत्युत दुःख ही होता है और उसका उपभोग करने के समय भी उसे तृप्ति न होने के कारण दुःख ही होता है।
फासे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो ण उवेइ तुढेि। अतुट्टि दोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययइ अदत्तं ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - फासे - स्पर्श में।
भावार्थ - स्पर्श में अतृप्त बना हुआ और स्पर्श विषयक परिग्रह में सक्त उपसक्तआसक्त एवं विशेष आसक्त बना हुआ जीव संतोष को प्राप्त नहीं होता है। असंतोष रूपी दोष से दुःखी बना हुआ तथा लोभ से मलिन चित्त वाला जीव दूसरों की बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण करता है (चोरी करता है)।
तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, फासे अतित्तस्स परिग्गहे य। मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्था वि दुक्खा ण विमुच्चइ से॥२॥
भावार्थ - तृष्णाभिभूतं - तृष्णा के वशीभूत बने हुए बिना दी हुई स्पर्शादि युक्त वस्तु को चुरा कर लेने वाले और स्पर्श विषयक परिग्रह में अतृप्त प्राणी के लोभ रूपी दोष से मायामृषाकपट पूर्वक असत्य भाषण की वृद्धि होती है तथापि वह दुःख से विप्रमुक्त नहीं होता अर्थात् नहीं छूटता है।
मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओग-काले य दुही दुरंते।
एवं अदत्ताणि समाययंतो, फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥३॥ . भावार्थ - मृषा-झूठ बोलने के पहले और पीछे तथा प्रयोगकाल - बोलते समय भी दुरन्त - दुष्ट हृदय वाला वह जीव दुःखी ही रहता है, इसी प्रकार स्पर्श में अतृप्त जीव बिना दी हुई स्पर्शादि युक्त वस्तुओं को ग्रहण करता हुआ अनिश्र-सहाय रहित और दुःखी होता है।
फासाणुरत्तस्स णरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि। तत्थोवभोगे वि किलेस-दुक्खं, णिव्वत्तइ जस्स कएण दुक्खं ॥४॥ कठिन शब्दार्थ - फासाणुरत्तस्स - स्पर्शानुरक्त - स्पर्श में आसक्त बना हुआ।
भावार्थ - इस प्रकार स्पर्श में आसक्त बने हुए मनुष्य को सुख कहां हो सकता है? उसे कभी भी किचित् मात्र भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता। जिस स्पर्शादि युक्त वस्तु को प्राप्त करने
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