SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इन्द्रिय विषयों के प्रति वीतरागता भावार्थ - तृष्णा के वशीभूत बने हुए बिना दी हुई रूपवान् वस्तु को चुरा कर लेने वाले और रूप विषयक परिग्रह में अतृप्त प्राणी के लोभ रूपी दोष से माया मृषावाद ( कपट पूर्वक असत्य भाषण) की वृद्धि होती है तो भी ( कपट पूर्वक झूठ बोलने पर भी ) वह दुःख से विप्रमुक्त नहीं होता है अर्थात् नहीं छूटता है। मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओग-काले य दुही दुरंते । - एवं अदत्ताणि समाययंतो, रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ३१ ॥ कठिन शब्दार्थ - मोसस्स मृषा - झूठ बोलने के, पच्छा बाद में, पुरत्थओ - पहले, पओग-काले प्रयोगकाल, दुरंते - अंत दुःख रूप, अदत्ताणि समाययंतो - चोरी करके दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करने वाला, अतृप्त होकर, दुहिओ दुःखित, अणिस्सो- अनिश्र - आश्रयहीन । अतित्तो भावार्थ - झूठ बोलने के पहले और पीछे तथा प्रयोगकाल अर्थात् झूठ बोलते समय भी दुरन्त (दुष्ट हृदय वाला वह) जीव दुःखी ही रहता है। इसी प्रकार रूप में अतृप्त जीव बिना दी हुई रूपवान् वस्तुओं को सम आददान ग्रहण करता हुआ सहाय रहित और दुःखी होता है। रूवाणुरत्तस्स णरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि । भव किस दुक्खं, णिव्वत्तइ जस्स कएण दुक्खं ॥ ३२ ॥ कठिन शब्दार्थ - रूवाणुरत्तस्स णरस्स रूप में अनुरक्त मनुष्य को, कत्तो - कहां से, सुहं - सुख, होज्ज हो सकता है, कयाइ कब, किंचि - किंचिन्मात्र, तत्थोवभोगे वि - उसके उपभोग में भी, किलेस-दुक्खं - क्लेश और दुःख ही, णिव्वत्तइ - प्राप्त करता है, जस्स करण . जिसे पाने के लिए। - भावार्थ - इस प्रकार रूप में आसक्त बने हुए मनुष्यों को सुख कहाँ हो सकता है अर्थात् उसे कभी भी किञ्चिन्मात्र सुख प्राप्त नहीं हो सकता। जिस रूपवान् वस्तु को प्राप्त करने के दुःख अपार कष्ट उठाया था, उस रूपवान् पदार्थ के उपभोग में भी वह अत्यन्त क्लेश और दुःख पाता है अर्थात् तृप्ति न होने के कारण उसे दुःख होता है। एमेव, रुम्मि गंओ पओसं, उवेइ दुक्खोह-परंपराओ । पट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ३३ ॥ Jain Education International - प्रमादस्थान - - - For Personal & Private Use Only - - २७५ - www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy