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प्रमादस्थान - मोह-उन्मूलन के उपाय
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मोह-उन्मूलन के उपाय रागं च दोसं च तहेव मोहं, उद्धत्तुकामेण समूलजालं। जे जे उवाया पडिवजियव्वा, ते कित्तइस्सामि अहाणुपुव्विं॥६॥
कठिन शब्दार्थ - उद्धत्तुकामेण - उखाड़ना चाहता है, समूलजालं - मूल सहित जाल को, उवाया - उपाय, पडिवज्जियव्वा - अपनाने चाहिये, कित्तइस्सामि - वर्णन करूंगा, अहाणुपुव्विं - अनुक्रम से।
भावार्थ - गुरु महाराज फरमाते हैं कि हे शिष्यो! राग-द्वेष और मोह के जाल को मूल सहित उखाड़ फेंकने की इच्छा वाले पुरुष को जो-जो उपाय अंगीकार करने चाहिये उनका यथानुपूर्वी - क्रमपूर्वक मैं कीर्तन - वर्णन करूँगा। उसे ध्यानपूर्वक सुनो।
रसा पगामं ण णिसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा णराणं। ___दित्तं च कामा समभिद्दवंति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी ॥१०॥
- कठिन शब्दार्थ - रसा - रसों का, पगाम - प्रकाम (अत्यधिक), ण णिसेवियव्वासेवन नहीं करना चाहिये, पायं - प्रायः, दित्तिकरा - दीप्तिकर या दृप्तिकर (उन्माद बढ़ाने वाले), समभिवंति - उत्पीड़ित करते हैं, साउफलं - स्वादिष्ट फल वाले, दुमं - वृक्ष को, पक्खी - पक्षी। - भावार्थ - दूध-घृत आदि रसों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए क्योंकि प्रायः रस मनुष्यों में दीप्तिकर-कामाग्नि को दीप्त करते हैं और उद्दीप्त मनुष्य की ओर कामवासनाएँ ठीक वैसे ही दौड़ी जाती है जिस प्रकार स्वादुफल - स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष की ओर पक्षी दौड़े आते हैं।
जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे, समारुओ णोवसमं उवेइ। एविंदियग्गी वि पगामभोइणो, ण बंभयारिस्स हियाय कस्सइ॥११॥
कठिन शब्दार्थ - दवग्गी - दावाग्नि, पउरिंधणे - प्रचुर ईन्धन वाले, वणे - वन में, समारुओ - समारुत-वायु के साथ, ण उवसमं उवेइ - उपशांत नहीं होती, एवं - इसी प्रकार, इंदियग्गी - इन्द्रियरूप अग्नि, पगामभोइणो - प्रकामभोजी, बंभयारिस्स - ब्रह्मचारी की, ण हियाय - हितकर नहीं होता।
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