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उत्तराध्ययन सूत्र - इक्कीसवां अध्ययन 000000000000000000000000000000
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शिक्षण बावत्तरी-कलाओ य, सिक्खिए णीइकोविए। जोव्वणेण य अप्फुण्णे, सुरूवे पियदंसणे॥६॥
कठिन शब्दार्थ - बावत्तरी कलाओ - बहत्तर कलाएं, सिक्खिए - सीखीं, णीइकोविएनीति कोविद, जोव्वणेण - यौवन से, अप्फुण्णे (संपण्णे) - सम्पन्न, सुरूवे - सुरूप, पियदसणे - प्रियदर्शन।
भावार्थ - शिक्षा ग्रहण के योग्य होने पर समुद्रपाल को विद्या गुरु के पास भेजा गया। वहाँ अत्यन्त सुरूप और सभी को प्रिय लगने वाले उस समुद्रपाल ने पुरुष की बहत्तर कलाएँ सीखीं और वह नीतिकोविद-नीति में पंडित बन गया। क्रमशः वह यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ।
पाणिग्रहण और सुखी जीवन तस्स रूववइं भज्जं, पिया आणेइ रूविणिं। पासाए कीलए रम्मे, देवो दोगुंदगो जहा॥७॥
कठिन शब्दार्थ - रूववई भज्जं - रूपवती भार्या, पिया - पिता, आणेइ - लाये, रूविणिं - रूपिणी नाम की, पासाए - प्रासाद में, कीलए - क्रीड़ा करने लगा, रम्मे - रम्यरमणीक, देवो दोगुंदओ जहा - दोगुंदक देव की भांति।
भावार्थ - समुद्रपाल की विवाह योग्य अवस्था देख कर उसका पिता उसके लिए रूपिणी (रुक्मिणी) नाम की रूपवती भार्या लाया अर्थात् रूपिणी नाम की एक सुन्दर कन्या के साथ उसका विवाह कर दिया। वह उसके साथ रमणीय प्रासाद में दोगुन्दक जाति के देवों के समान निर्विघ्नरूप से क्रीड़ा करने लगा।
विवेचन - युवावस्था प्राप्त होने पर समुद्रपाल सुरूप एवं सभी को प्रिय लगने वाले थे। . पिता ने एक सुंदर सुशील कन्या के साथ उसका पाणिग्रहण कर दिया। वह महलों में दोगुंदक देव की तरह क्रीड़ा करने लगा।
त्रायस्त्रिंशक देवों को 'दोगुंदक' कहते हैं। ये देव निर्विघ्नता एवं निर्भिकता से स्वर्गीय सुखों का उपभोग करते हैं इसलिये समुद्रपाल के सुखोपभोग के लिए भी 'देवो दोगुंदगो जहा' यह विशेषण प्रयुक्त किया गया है।
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