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उत्तराध्ययन सूत्र - बत्तीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
भावार्थ - यदि अपने से अधिक गुण वाला अथवा अपने समान गुण वाला निपुण. सहायक नहीं मिले तो अकेला ही पाप-कर्मों को वर्जता हुआ और काम-भोगों में आसक्त न होता हुआ विचरे किन्तु दुर्गुणी का संग नहीं करे।
विवेचन - इस गाथा में परिस्थिति वश एकलविहार का वर्णन किया है। यह सर्व साधारण की अपेक्षा नहीं समझना चाहिए। किन्तु गीतार्थ की अपेक्षा समझना चाहिए। जैसा कि ठाणाङ्ग सूत्र के आठवें ठाणे उद्देशक ३ में कहा है - आचार्य या गुरुदेव की आज्ञा लेकर जिनकल्प प्रतिमा या मासिकी प्रतिमा आदि अंगीकार करके साधु के अकेले विचरने रूप अभिग्रह को एकल विहार प्रतिमा कहते हैं। समर्थ और श्रद्धा तथा चारित्र आदि में दृढ़ साधु ही इसे अंगीकार कर सकता है। उसमें नीची लिखी आठ बातें होनी चाहिए -
१. सही पुरिस जाए - श्रद्धावान् - वह साधु जिनमार्ग में प्रतिपादित तत्त्व तथा आचार में दृढ़ श्रद्धा वाला हो। कोई देव तथा देवेन्द्र भी उसे सम्यक्त्व तथा चारित्र से विचलित न कर सके। ऐसा पुरुषार्थी उद्यमशील तथा हिम्मत वाला होना चाहिए।
१. सधे पुरिसजाए - सत्य पुरुषजात - सत्यवादी और दूसरों के लिए हित वचन बोलने वाला।
३. मेहावी पुरिसजाए - मेधावी पुरुषजात - शास्त्रों को ग्रहण करने की शक्ति वाला अथवा मर्यादा में रहने वाला।
४. बहुस्सुए - बहुश्रुत अर्थात् बहुत शास्त्रों को जानने वाला हो। सूत्र, अर्थ और तदुभय रूप आगम उत्कृष्ट कुछ कम दस पूर्व तथा जघन्य नवमें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु को जानने वाला होना चाहिए।
५. सत्तिमं - शक्तिमान् अर्थात् समर्थ होना चाहिए। तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल इन पांचों के लिए अपने बल की तुलना कर चुका हो।
६. अप्पाहिकरणे - अल्पाधिकरण - थोड़े वस्त्र पात्रादि वाला तथा कलह रहित हो।
७. धिइमं - धैर्यवान्चित्त की स्वस्थता वाला अर्थात् रति, अरति तथा अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करने वाला हो।
८. पीरियसम्पण्णे - वीर्य सम्पन्न - परम उत्साह वाला हो।
अभी इस पंचम काल में पूर्वो का ज्ञान विच्छिन्न हो चुका है। इसलिए आगमानुसार कोई भी एकलविहारी नहीं हो सकता। यदि कोई स्वछन्दाचारी बनकर गुरु आज्ञा के बिना अकेला .
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