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________________ २६२ . उत्तराध्ययन सूत्र - बत्तीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अत्यन्तकाल कहा है। तात्पर्य यह है कि आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध कब हुआ है उसका आदि काल नहीं पाया जाने के कारण कर्मों का सम्बन्ध कब हुआ है, उसका आदि काल नहीं पाया जाने के कारण कर्मों का सम्बन्ध आत्मा के साथ अनादि काल से है। ___सर्वज्ञ सर्वदर्शी केवली भगवान् “सर्व द्रव्य, सर्व क्षेत्र, सर्व काल, सर्व भाव जानते देखते है" इसका आशय यह समझना कि केवलज्ञान व केवलदर्शन के पर्याय-सर्वाधिक स्तर के (सभी अनन्त के प्रकारों में सबसे ऊंचा दर्जा अर्थात् मध्यम अनंतानंत आठवें अनन्त का बहुत ऊंचा दर्जा) होते हैं। उस ज्ञान, दर्शन के द्वारा-सभी ज्ञेय पदार्थ (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव) के सभी अविभाज्य अंश-सम्पूर्ण रूप से 'संख्या' आदि सभी दृष्टि से जाने देखे जाते हैं अतः केवलियों के लिए कोई भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, अनजाना अनदेखा नहीं होता है अतः उसका आदि अन्त भी जानते देखते हैं। केवलज्ञान दर्शन-ज्ञाता दृष्टा होने से भाजन के समान आधार भूत हैसभी द्रव्यादि उसके विषय रूप (ज्ञेय रूप) होने से आधेय गिने जाते हैं। आधार हमेशा बड़ा ही होता है। थाली के समान केवलज्ञान, केवलदर्शन और कटोरियों के समान द्रव्यादि। अनादि अनन्त शब्दों का व्यवहार-छद्मस्थों को समझाने के लिए किया है। केवलियों के लिए कोई भी द्रव्यादि 'अनादि अनन्त' नहीं होते हैं। केवलज्ञानी मित अमित सभी को जानते देखते हैं। भगवती सूत्र शतक २५ में बताई हुई लोक, अलोक के पूर्वादि दिशाओं की श्रेणियों से यह स्पष्ट हो जाता है। दुःख मुक्ति व सुख प्राप्ति का उपाय णाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अण्णाणमोहस्स विवजणाए। रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं॥२॥ कठिन शब्दार्थ - णाणस्स - ज्ञान के, पगासणाए - प्रकाशन से, अण्णाणमोहस्स - अज्ञान और मोह के, विवज्जणाए - विवर्जन-परिहार से, रागस्स - राग के, दोसस्स - द्वेष के, संखएणं - सर्वथा क्षय से, एगंतसोक्खं - एकान्त सुख रूप, समुवेइ - प्राप्त करता है, मोक्खं - मोक्ष को। ___ भावार्थ - सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाश से, अज्ञान और मोह के विवर्जन-त्याग से तथा राग । और द्वेष के क्षय से एकान्त सुखकारी मोक्ष की प्राप्ति होती है। विवेचन - प्रस्तुत गाथा में समग्र दुःखों से मुक्ति एवं एकान्त सुख प्राप्ति का उपाय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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